पृष्ठ:चंदायन.djvu/३६७

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३५९ पहा कि तुम्हारा पिता जातसे निकाला हुआ है, तुम्हारी माँ पड़ोसियोंका भात चुराती है, इसीरो तुम्हारे विवाहदे लिए कोई आता नहीं । तुम सोलह सालकी हो गयी और अभी तक कुँवारी ही बनी हो। मजरीकी बातें सुनकर पद्माने बताया-जिस दिन तुम घरसे बाहर निकलने लगी, उसी दिन नुम्हारे पिताने पण्डित और नाईको वर ढूँढनेरे लिए भेजा । पण्डितजी बारह वर्ष तक तिलक लेकर घूमते रहे, लेकिन तुम्हारे योग्य कोई घर नहीं मिला । अर बतागो कौन सा उपाय किया जाय । सखियोंने तुम्ह झूठा ताना मारा है। यह मुनकर मजरी बोली-तुम जाकर आरामसे सोओ। मजरी पाटपर लेटी रेटी सोचती रही। आधी रात बीतनेपर वह धीरसे दरवाजा खोलकर महलसे बाहर निगलकर अगारिया शाहर पहुँची और कुएँ में दूरनेकी बात सोचने लगी। तभी उसे ध्यान आया कि अगर मैं यहाँ डूबती हूँ तो लेग मेरा नग्न शरीर देखेंगे और मैं स्वग नरक कहानी भी न रहूँगी। अत उराने गगामै बसर प्राण तजनेश निश्चय किया और गगाके किनारे पहुँचकर उसने साडीका काछ मनाया और आँचलसे अपने स्तन कसकर बाँधे और गगारे अगाथ जमे जूद पड़ी। दनेसे जो धमाका हुआ उसकी आवाज गगारे कानों में पहुंची, वे चिहुँ उठी और आसनसे उठकर सोचने लगी--एक सती मेरे बीच अपना प्राण तज रही है । यदि उसने प्राण सज दिया तो मुझे नरस्वास करना होगा। __आकुल होकर वे ऐसी ल्हरायों कि लहरके साथ मजरी सूप रेतपर लाकर गिरी। अप मजरी सोचने रुगी कि अब मैं अपने प्राण त। तो देखें। उसकी दृष्टि एक नायपर पडी। वह उसपर चढ गयी और धीरेसे उसीहोर सोकर उसे मझ धारकी ओर ले चली। जहाँ जल अथाह था, वहाँ पहुँचकर वद्द गगाम पुन कूद पड़ी। जैसे ही इसकी सूचना गगाको मिलो, मजरी जहाँ दी थी यहाँ उन्होंने रेतका द्वीप पड़ा कर दिया । सूपे हुए रेतपर बैठकर मजरी अपनी स्थितिपर विलाप करन लगी-सोचकर आयी थी ति गगा माता मुझे शरण दगी पर जान पड़ता है उन्ह मुझसे घृणा है, उनरे लिए मेरा शरीर भी भार हो रहा है। हे ईश्वर | अब मेरी क्या गति होगी। मंजरीका रुदन सुनकर गगा वृद्धाका रूप धारण कर उसके पास चली । रारते में दूसरी ओरगे भाग्यसे लगडाते हुए अपनी जोर आते देखा। उसे देखकर गगाने उनसे हाल चाल पूछा । माग्यसे कहा- लादी भाग्प है। तुग यौन हो? उन्हाने रसाया मैं गगाहूँ। मेरे यास एक स्त्री माण तजने भाई हुई है। यह तो बताओ कि उसके भाग्यमें विवाह होना लिया है या नहीं। भाग्यने उनर दिया-- मेरी रामहामं तो मजरीके लिए मुहाग नहीं जान पडता । अभी मैं इन्द्ररे पारा जा रही हूँ, वहाँसे गैरवर ही में कुछ निश्चय पूर्वक यता सगी। गगा वही पेट गयी और भाग्य इन्द्रपुरी पहुँची। उस समय इद्र सो रहे थे।