पृष्ठ:चंदायन.djvu/५३

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Yo सम्बन्धमें कहा है। कुतवनकी मिरगावतिरे जो अश उपलब्ध हैं, उनसे ज्ञात होता है कि उसका भी प्रारम्भ ईभरको बन्दनासे हुआ है। मंझनने भी मधु मालती हम्द, नात, रमहरे चार यारों, शाहेबच की स्तुति करते हुए कारस रचना काल तथा अपना सक्षित परिनर दिया है। मलिक मुहम्मद जायसी आदि परवती कविने भी इसी परम्पराको अहण किया है। अरची पारसौने सनविय और हिन्दी प्रेमारपानक कालोको ये समानताएँ रामचन्द्र शुक्लरे वधनरा पुत्र करती हुई यह कहने विवश करती है कि मुसल- मान विशेने अपने पालोमे इस परम्पराको अरपी पारसी मसनवियाको देखकर ही अपनाया होगा। पर साथ ही इस यातकी भी उपेक्षा नहा की जा सकती कि ये बातें केवल अररी पारसी मसनविपारी परम्परामे सीमित नहीं हैं। भारतीय वाव्य-परम्परा भी इन रानोंसे भली प्रकार परिचित रहा है। असो पारसी मसनबियों और हिन्दी प्रेमायानर काव्योंकी लगभग ये सभी रात जैन अपभ्रश-काव्याम पायी जाती हैं। माय सभी जैन अपभ्रश काव्योंका आरम्भ 'जिन की पन्दनासे होता है। किन्हीं- किन्दीम जिन-वन्दनारे वाद सरस्वतीकी भी यन्दना पायी जाती है। तदन्तर उनमे समाानिक शासरका उलेग, पवित्र आत्म परिचय और आश्रयदातापी चर्चा है और रचनाता पारण रवाया गया है। उदाहरण स्वरूप पुप्पदन्त पूत महापुराण, स्वयंभू वृत पदमचरित और श्रीधर त पासनाहचरिउ देखा जा सकता है। हिन्दी प्रेमारपानक काव्यो सम्बन्धमे पारसी मसनवियोंकी जिस दूसरी विशेषताकी आर लागावा पान गया है, यह है उनमे पायो जानेवाली प्रसगोंकी मुरिंग | निजामी, अमीर खुसरो,जामी, फैजी, मभीने अपनी मसनवियों में प्रसगो- के अनुदल शीर्पक दिये है। ठाक उसी ढगरे शीर्षक चन्दायनी सभी पारसी प्रतियोगमत्येक कडवको कार दिये गये हैं और अन्य काव्योंकी प्रतियोम मा पाये जाते है। अत इसम भी इन कवियोंका पारसी मसननिर्णोका अनुकरण परिलक्षित होता है। पर इसी दगरे शोक अपभ्रश कायोंमें भी पाये जाते हैं। सस्कृत साहित्य शास्त्र अनुसार किसी माराव्यमें कमसे कम आठ सर्ग होने चाहिए जो न तो बहुत छोटे हो और न यहुत । इस प्रकारका सर्गबन्ध हिन्दी प्रेमाख्यानक काव्यों में न होनेसे यह मान लिया गया है कि वे पारसी मसन वियों अनुकरणर रचे गये है, जहाँ सर्ग जैसा कोई विभाजन नहीं मिलता | रिन्तु इस धारणाम भी कोई विशेष बल नहीं है। यह बात न भूल्नी चाहिए रि अपभ्रशमें सर्गहीन काव्योंकी कमी नहीं है। हिन्दी प्रेमाख्यानक यायोया रूप उन कामोंसे किमी भी रूपमे भिन नहीं है। हिन्दी प्रेमारामक कामों फ्था वस्तु सर्वथा भारतीय हैं और वे भारतीय क्यानर रूढियॉपर ही आधारित हैं। उनमें यहाँ भी अरबी या पारसी प्रभाव नहीं मिल्वा । ऐसी स्थितिम यह समझना कठिन है कि इन पपियोंने अपने काव्यये बाह्य रूपरे लिए भारतीय कायोंसे इतर यहाँसे प्रेरणा प्राप्ती।