सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 1.djvu/१४०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
132
 

शिवदत्त––तुम्हारा कहना ठीक है मगर तुम्हारे साथ गए हुए ऐयारों की कार्रवाई तब तक बहुत अच्छी होगी जब तक दुश्मनों को यह न मालूम हो जाय कि शिवदत्तगढ़ का कोई आया है! सिवाय इसके मैं बहादुर नाहरसिंह को तुम्हारे साथ भेजता हूँ जिसका मुकाबला करने वाला वीरेन्द्रसिंह की तरफ कोई नहीं है।

भीमसेन––बेशक नाहरसिंह ऐसा ही है मगर मुश्किल तो यह है कि नाहरसिंह जितना बहादुर है उससे ज्यादा इस बात को देखता है कि अपने कौल का सच्चा रहे। उसका कहना है कि जिस दिन कोई बहादुर द्वन्द्व-युद्ध में मुझे जीत लेगा, उसी दिन मैं उसका हो जाऊँगा।' ईश्वर न करे, कहीं ऐसी नौबत आ पहुँची तो वह उसी दिन से हम लोगों का दुश्मन हो जायगा।

शिवदत्त––यह सब तुम्हारा खयाल है, द्वन्द्व-युद्ध में उसे जीतने वाला वहाँ कोई नहीं है।

भीमसेन––अच्छा जो आज्ञा।

शिवदत्त––(खड़े होकर) चलो, मैं इसी वक्त चल कर तुम्हारे जाने का बन्दोबस्त कर देता हूँ।

शिवदत्त और भीमसेन के बाहर चले जाने के बाद रानी कलावती ने, जो बहुत देर से इन लोगों की बातें सुन-सुनकर गरम-गरम आँसू गिरा रही थी सिर उठाया और लम्बी साँस लेकर कहा, "हाय, अब तो जमाने का उलट-फेर ही दूसरा हुआ चाहता है। बेचारी किशोरी का क्या कसूर? वह आप से आप तो चली ही नहीं गई? उसने अपने आप तो कोई ऐसा काम किया ही नहीं जिससे उसकी इज्जत में फर्क आवे! हाय, किस कलेजे से भीमसेन अपनी बहिन को मारने का इरादा करेगा! मेरी जिन्दगी अन व्यर्थ है क्योंकि बेचारी लड़की तो अब मारी ही जायगी, भीमसेन भी वीरेन्द्रसिंह से दुश्मनी करके अपनी जान नहीं बचा सकता, दूसरे उस लड़के का भरोसा क्या जो अपने हाथ से अपनी बहिन का सिर काटे। अगर इन सब बातों को भी भूल जाऊँ और यही सोच कर बैठ रहूँ कि मेरे सर्वस्व तो पति हैं मुझे लड़के-लड़कियों से क्या मतलब, तो भी नहीं बनता, क्योंकि वे भी डाकू-वृत्ति लिया चाहते हैं। इस अवस्था में वे किसी प्रकार का सुख नहीं पा सकते। फिर जीते-जी अपने पति को दुःख भोगते मैं कैसे देखूगी? हाय! वीरेन्द्रसिंह वही वीरेन्द्रसिंह है जिसकी बदौलत मेरी जान बची थी, न मालूम बुर्दाफरोशों की बदौलत मेरी क्या दुर्दशा होती! वही वीरेन्द्रसिंह है जिसने कृपा कर मुझे अपने पति के पास खोह में भिजवा दिया था! वही वीरेन्द्रसिंह है जिसने हम लोगों का कसूर एकदम माफ कर दिया था और चुनार गढ़ की गद्दी लौटा देने को भी तैयार था! किस-किस बात की तरफ देखू? वीरेन्द्रसिंह के बराबर धर्मात्मा तो कोई दुनिया में न होगा! फिर किसको दोष दूँ, अपने पति को? नहीं, कभी नहीं, यह मेरे किए न होगा! यह सब दोष तो मेरे कर्मों का ही है। फिर जब भाग्य ही बुरे हैं तो ऐसे भाग्य को लेकर दुनिया में क्यों रहूँ? मैं अपनी छुट्टी तो आप ही कर लेती हूँ फिर मेरे पोछे क्या जाने क्या होगा, इसकी खबर ही किसे है!"

च॰ स॰-1-8