उसे आजमावेंगे। आप उसके लिए एक अच्छा-सा मकान दे दें, और हर तरह के आराम का बन्दोबस्त कर दें।
इन्द्रजीतसिंह-बहुत अच्छा।
कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने उसी समय नाहरसिंह को अपने पास बुलाया और बड़ी मेहरबानी के साथ पेश आये। एक मकान देकर अपने सेनापति की पदवी उसे दी और भीमसेन को कैद में रखने का हुक्म दिया।
अपने ऊपर कुमार की इतनी मेहरबानी देखकर नाहरसिंह बहुत प्रसन्न हुआ। कुछ देर तक बातें करता रहा, तब सलाम करके अपने ठिकाने चला गया, और सेनापति के काम को ईमानदारी के साथ पूरा करने का उद्योग करने लगा।
आधी रात जा चुकी है। चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है। गलियों और सड़कों पर चौकीदारों के "जागते रहियो, होशियार रहियो" पुकारने की आवाज आ रही है। नाहरसिंह अपने मकान में पलंग पर लेटा हुआ कोई किताब देख रहा है और सिरहाने शमादान जल रहा है।
नाहरसिंह के हाथ में श्रुति-स्मृति या पुराण की कोई पुस्तक नहीं है, उसके हाथ में त स्वीरों की एक किताब है जिसके पन्ने वह उलटता है और एक-एक तस्वीर को देर तक बड़े गौर से देखता है। इन तस्वीरों में बड़े-बड़े राजाओं और बहादुरों की मशहूर लड़ाइयों का नक्शा दिखाया गया है और पहलवानों की बहादुरी और दिलावरों की दिलावरी का खाका उतारा हुआ है जिसे देख-देखकर बहादुर नाहरसिंह की रगें जोश मारती हैं, और वह चाहता है कि ऐसी लड़ाइयों में हमें भी कभी हौसला निकालने का मौका मिले।
तस्वीरें देखते-देखते बहुत देर हो गई, और नाहरसिंह की नींद-भरी आँखें भी बन्द होने लगीं। आखिर उसने किताब बन्द करके एक तरफ रख दी और थोड़ी ही देर बाद गहरी नींद में सो गया।
इस मकान के किसी कोने में एक आदमी न मालूम कबका छिपा हुआ था, जो नाहरसिंह को सोता जानकर उस कमरे में चला आया और पलंग के पास खड़ा हो उसे गौर से देखने लगा। इस आदमी को हम नहीं पहचानते क्योंकि यह मुंह पर नकाब डाले हुए है। थोड़ी देर बाद अपनी जेब से उसने एक पुड़िया निकाली और एक चुटकी बुकनी की नाहरसिंह की नाक के पास ले गया। सांस के साथ धरा दिमाग में पहुंचा और वह छींक मार कर बेहोश हो गया।
उस आदमी ने अपनी कमर से एक रस्सी खोली और नाहरसिंह के हाथ-पैर मजबूती से बांध कर उसे होशियार करने के बाद तलवार खींच मुंह पर से नकाब हटा सामने खड़ा हो गया। होश में आते ही नाहरसिंह ने अपने को बेबस और हाथ में नंगी तलवार लिए महाराज शिवदत्त को सामने मौजूद पाया।
शिवदत्त-क्यों नाहरसिंह, एक नाजुक समय में हमारे लड़के का साथ छोड़ देना और उसे दुश्मनों के हाथ में फंसा देना क्या तुम्हें मुनासिब था ?
नाहरसिंह-जब तक बहादुर इन्द्रजीतसिंह ने मुझ पर फतह नहीं पाई, तब तक