सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 1.djvu/१६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
152
 


छिटकी हुई चाँदनी उसके वदन में चिनगारियां पैदा करती है, शाम की ठंडी हवा उसे लू सी लगती है, खुशनुमा फूलों को देखने से उसके कलेजे में काँटे चुभते हैं, वाग की रविशों पर टहलने से पैरों में छाले पड़ते हैं, नरम बिछावन पर पड़े रहने से हड्डियाँ टूटती हैं, और वह करवटें बदल कर भी किसी तरह आराम नहीं ले सकता।

खाना-पीना हराम हो जाता है, मिसरी की डली जहर मालूम होती है, गम खाते-खाते पेट भर जाता है, प्यास बुझाने के लिए आँसू की बूंदें बहुत हो जाती हैं, हजार दुःख भोगने पर भी किसी की जुल्फ में उलझी हुई जान को निकल भागने का मौका हाथ नहीं लगता। दोस्तों की नसीहतें जिगर के टुकड़े-टुकड़े करती हैं, जुदाई की आग में कलेजा भुन जाता है, बदन का खून पानी हो जाता है और इसी से उसकी भूख-प्यास दोनों ही जाती रहती हैं। जिसकी सूरत उसकी आँखों में छुपी रहती है, दरो-दीवार में वही दिखाई देता है, स्वप्न में भी इठलाता हुआ वही नजर आता है। उसकी सुनी हुई बातें रात-दिन कानों में गूंजा करती हैं, हँसी के समय दिखाई दिये हुए मोतियों रे दाँत गले का हार बन बैठते हैं, भुलाये नहीं भूलते, जादू-भरी चितवनों की याद दिल को उचाट कर देती है, गले में हाथ डाल कर ली हई अँगड़ाई बदन को दबाये देती है, उसकी याद में एक तरफ झुके हुए, कभी सीधे भी नहीं होने पाते।

वे दिन-रात आँखें बन्द कर हुस्न के बाग में टहला करते हैं। ठंडी साँसें आँधी का काम देती हैं। सुखे पत्ते उड़ाया करते हैं और धीरे-धीरे आप भी ऐसे सूख जाते हैं कि साँस के साथ उड़ जाने की हिम्मत बाँधते हैं, मुहब्बत का गुरु चाबुक लिए हर-दम पीछे मौजूद रहता है, बुदबुदाते हुए अपने चेले को कहीं ठहरने नहीं देता और न माशूक के नाम के सिवाय कोई दूसरा शब्द मुंह से निकालने देता है।

आदमी क्या हवा तक ऐसों से दिल्लगी करती है, किवाड़ खटखटा माशूक के आने की याद दिला चुटकियाँ लेती है, और कभी कान में झुक कर कहती है कि मैं उस गली से आई हूँ जिसमें तेरा प्यारा रहता है।

बाग में टहलने के समय हवा के चपेटों में पड़ी हुई पेड़ों की टहनियाँ हिलहिल कर अपने पास बुलाती हैं और जब वह पास जाता है तो हँसी के दो फूल गिरा कर चुप हो जाती हैं जिससे उसका दिल और भी बेचैन हो जाता है और वह दोनों हाथों से कलेजा थाम कर बैठ जाता है। उसके प्यारे रिश्तेदार यह हालत देख अफसोस करते हैं और उसकी नर्म अँगुलियों को हाथ में ले कर पूछते हैं कि क्या ये नाखून बढ़ा रखे हैं?

बेचैनी इतनी बढ़ जाती है कि आधे घण्टे तक के लिए भी ध्यान एक तरफ नहीं जमता और न एक जगह थोड़ी देर तक आराम के साथ बैठने की मोहलत मिलती है। आँखों में छिपी रहने वाली नींद भी न मालूम कहाँ चली जाती है और अपनी जगह टकटकी को जो दम-दम में तरह-तरह की तस्वीरें बनाने और बिगाड़ने वाली है छोड़ जाती है।

यही हमारे कुँअर इन्द्रजीतसिंह और उनकी प्यारी किशोरी की हालत है। उस समय दोनों एक-दूसरे से दूर पड़े हैं, मगर मुहब्बत का भूत रंग-बिरंग की सूरत बन दोनो