पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 1.djvu/७१

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औरत-अब तुम्हें सब्र करके दस-पन्द्रह दिन और यहीं रहना मुनासिब है।

इन्द्रजीतसिंह-अब मैं किस तरह उस बदकारा के साथ रह सकूँगा?

औरत-जिस तरह भी हो सके।

इन्द्रजीतसिंह-खैर, फिर इसके बाद क्या होगा?

औरत-इसके बाद यह होगा कि तुम सहज ही में सिर्फ इस खोह के बाहर ही न हो जाओगे, बल्कि एकदम से यहाँ का राज्य ही तुम्हारे कब्जे में आ जायेगा।

इन्द्रजीतसिंह-क्या वह कोई राजा था, जिसके पास माधवी बैठी थी?

औरत-नहीं, यह राज्य माधवी का है और वह इसका दीवान था।

इन्द्रजीतसिंह-माधवी तो अपने राज्य को कुछ भी नहीं देखती!

औरत-अगर वह इस लायक होती तो दीवान की खुशामद क्यों करती!

इन्द्रजीतसिंह–इस हिसाब से तो दीवान ही को राजा कहना चाहिए।

औरत-बेशक!

इन्द्रजीतसिंह-खैर, अब तुम क्या करोगी?

औरत-इसके बताने की अभी कोई जरूरत नहीं, दस-बारह दिन बाद मैं तुमसे मिलूंगी और जो कुछ इतने दिनों में कर सकूँगी, उसका हाल कहूँगी। बस, अब मैं जाती हूँ। अपने दिल को जिस तरह हो सके, सम्हालो और माधवी पर किसी तरह यह मत जाहिर होने दो कि उसका भेद तुम पर खुल गया या तुम उससे कुछ रंज हो, इसके बाद देखना कि इतना बड़ा राज्य कैसे सहज ही में हाथ लगता है जिसका मिलना हजारों सिर कटने पर भी मुश्किल है।

इन्द्रजीतसिंह-खैर, यह तमाशा भी जरूर ही देखने लायक होगा।

औरत-अगर बन पड़ा तो इस वायदे के बीच मैं एक-दो दफे आकर तुम्हारी सुध ले जाऊँगी।

इन्द्रजीतसिंह-जहाँ तक हो सके, जरूर आना।

इसके बाद वह काली औरत चली गई और इन्द्रजीतसिंह अपने कमरे में आकर सो रहे।

पाठक समझते होंगे कि इस काली औरत या इन्द्रजीतसिंह ने जो कुछ किया या कहा-सुना, किसीको मालूम नहीं हुआ, मगर नहीं, वह भेद उसी वक्त खुल गया और काली औरत के काम में बाधा डालने वाला भी तभी पैदा हो गया। बल्कि, उसने उसी वक्त से छिपे-छिपे अपनी कार्रवाई भी शुरू कर दी, जिसका हाल माधवी तक को मालूम न हो सका।

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जब इस जगह थोड़ा-सा हाल इस राज्य का और साथ ही इसके माधवी का भी लिख देना जरूरी है।