पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 3.djvu/१५०

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आये थे, गिनती में अपने से बहुत कम पाया था।

यह थोड़ी-सी फौज जो रोहतासगढ़ से आई थी, चुन्नीलाल ऐयार के आधीन थी। चुन्नीलाल ने जासूसों को भेज कर इस बात का पता पहले ही लगा लिया था कि तालाब वाले तिलिस्मी मकान पर हमला करने वाले दुश्मन कितने और किस ढंग के हैं, इसके बाद उसने अपनी फौज को फैला कर दुश्मनों को चारों तरफ से घेर लेने का उद्योग किया था और जो कुछ सोच रखा था वही हुआ।

चुन्नीलाल की मातहत फौज ने दुश्मनों को घेर कर बेतरह मारा। चुन्नीलाल स्वयं तलवार लेकर मैदान में अपनी बहादुरी दिखाता हुआ अपने सिपाहियों की हिम्मत बढ़ा रहा था और जिधर धंस जाता था उधर ही दस-पाँच को खीरे-ककड़ी की तरह काट गिराता था। यह हाल देख दुश्मन बगलें झांकने लगे, मगर लड़ाई इस ढंग से हो रही थी कि यहाँ से बचकर निकल भागना भी मुश्किल था। दो घंटे की लड़ाई में आधे से भी ज्यादा दुश्मन मारे गये और बाकी भाग कर अपनी जान बचा ले गये। वीरेन्द्रसिंह के केवल बीस बहादुर काम आये। इस घमासान लड़ाई के अन्त में इस बात का कुछ भी पता न लगा कि शिवदत्त बहादुरी के साथ लड़कर मारा गया या मौका मिलने पर निकल भागा।

जब दश्मनों में से सिवाय उन सभी के जो मौत की गोद में सो चुके थे या जमीन पर पड़े सिसक रहे थे और कोई भी न रहा, सब भाग गये, तब केवल दस-बारह आदमियों को साथ लेकर चुन्नीलाल तिलिस्मी मकान की तरफ बढ़ा मगर मकान में पहुँचने के पहले ही सिपाही सूरत का एक आदमी जो उसी मकान में से निकल कर इनकी तरफ आ रहा था उसे मिला। उसके हाथ में लिफाफे के अन्दर बन्द एक चिट्ठी थी जो उसने चन्नीलाल के हाथ में दे दी और चुपचाप खड़ा हो गया। चुन्नीलाल ने भी उसी जगह अटक कर लिफाफा खोला और बड़े ध्यान से चिट्ठी पढ़ने लगा। समाप्त होने तक कई दफे चुन्नीलाल के चेहरे पर हँसी दिखाई दी और अन्त में वह बड़े गौर से उस आदमी की सूरत देखने लगा, जिसने चिट्ठी दी थी तथा इसके बाद इशारे से सिर हिलाया मानो उस आदमी को यहाँ से बेफिक्री के साथ चले जाने के लिए कहा और वह आदमी भी बिना सलाम किये झूमता हुआ वहाँ से चला गया।

चन्नीलाल कई आदमियों को साथ लेकर तिलिस्मी मकान के अन्दर गया, उसने वहां अच्छी तरह घूमकर देखा, मगर किसी को न पाया, तब बाहर निकला और अपने मातहत सिपाहियों को लेकर रोहतासगढ़ की तरफ लौट गया।


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ऊपर का बयान पढ़कर हमारे प्रेमी पाठक ताज्जुब करते होंगे कि यह क्या हुआ और क्या लिखा गया। और बातों को जाने दीजिये, मगर अन्त में यह क्या अश्चर्य की