पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 3.djvu/१५४

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बात विचारशक्ति की दृढ़ता और स्थिरता पर निर्भर है कि किसका मन कितनी देर में बदल सकता है। भगवानी औरत की जात है जिनका मन वनिस्बत मर्दो के बहुत कमजोर होता है। ऐसे को यदि तीन धूर्तों की लच्छेदार बातों ने, जो आपके यहाँ कैद थे, मौका पाकर बदल दिया तो कोई आश्चर्य की बात नहीं, इससे इस बात को निश्चित तौर पर कह नहीं सकते कि भगवानी अवश्य पहले से ही खोटी थी या पहले अच्छी थी, बीच में खोटी बना दी गई।

कमलिनी–(भैरोंसिंह के विचारों से प्रसन्न होकर) बेशक तुम्हारा यह कहना बहुत ठीक है, मैं स्वीकार करती हूँ।

देवीसिंह–(भैरोंसिंह की पीठ मुहब्बत से ठोंककर) शाबाश! मैं यह जानकर प्रसन्न हुआ कि तुम मन की अवस्था को अच्छी तरह से समझते हो, जिसका नतीजा भविष्य में बहुत अच्छा निकलेगा। ईश्वर हमारे उस मनोरथ को पूरा करे जिसके लिए इस समय तेजी और घबराहट के साथ हम लोग जा रहे हैं फिर किसी समय इस विषय पर बहुत-सी बातें मैं तुमसे कहूँगा।

इन लोगों को राह चलने या स्थान खोजने में किसी तरह की कठिनता न हो इसलिए विधाता ने आसमान पर कुदरती माहताबी जला दी थी और वह कमशः ऊंची होकर पृथ्वी के इस खण्ड की उन तमाम चीजों को, जो किसी आड़ में न थी, साफ दिखाई देने में सहायता कर रही थी। यही सबन्न था कि इन लोगों को उन कठिन रास्तों पर चलने में विशेष कष्ट न हुआ जो बहुत ही पथरीला, खराब और नक्शे की तरह पेचीला था।

पहाड़ियों पर घूम-फिर कर चढ़ते-उतरते हुए ये लोग एक ऐसे स्थान पर पहुँचे जिसके दोनों तरफ ऊँचे पहाड़ और बीच में एक बारीक पगडण्डी थी जिसके देखने से साफ मालूम होता था कि कारीगरों ने बड़े-बड़े ढोकों को काट कर यह रास्ता तैयार किया होगा। यहाँ पर कमलिनी और लाड़िली घोड़ों पर से उतर पड़ी और उन्हें एक पेड़ से बाँध आगे की तरफ रवाना हुई। कमलिनी आगे-आगे जा रही थी, उसके पीछे लाड़िली और फिर दोनों ऐयार आश्चर्य से चारों तरफ देखते और यह सोचते हुए जा रहे थे कि निःसन्देह अनजान आदमी जिसे इस रास्ते का हाल मालूम न हो, यहाँ कदापि नहीं आ सकता।

इस पगडंडी पर दो सौ कदम जाने के बाद साफ पानी से भरा हुआ एक पतला चश्मा मिला जो इन लोगों की राह काटता हुआ दाहिने से बाईं तरफ को बह रहा था। अब कमलिनी उसी नहर के किनारे-किनारे बाईं तरफ जाने लगी, मगर अपनी तेज निगाहें उन छोटे-छोटे जंगली पेड़ों पर बड़ी सावधानी से डालती जाती थी जो उस चश्मे की दोनों किनारों पर बड़ी खूबी और खूबसूरती के साथ खड़े इस समय की ठण्डी-ठण्डी हवा के नर्म झोकों में नये शराबियों की तरह धीरे-धीरे झूम रहे थे।

यकायक कमलिनी की निगाह एक ऐसे पेड़ पर पड़ी जिसके दोनों तरफ पत्थरों के ढोंके इस तौर पर पड़े हुए थे मानो किसी ने जान-बूझ कर इकट्ठे किये हों। यहाँ पर कमलिनी रुकी और कुछ सोचने के बाद अपने साथियों को लिये चश्मे के पार उतर गई