पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 3.djvu/१७७

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देवीसिंह ठहर गये और बड़े गौर से उधर देखने लगे जिधर से किसी के आने की आहट मिल रही थी। थोड़ी ही देर में दो आदमी निगाह के सामने आ पहुँचे जिनमें से एक को देवीसिंह पहचानते थे और दूसरे को नहीं। पाठक समझ गये होंगे कि उन दोनों में से एक तो भूतनाथ था और दूसरा वही विचित्र आदमी जिसने भूतनाथ पर अपना अधिकार कर लिया था और जो इसे उसे समय अपने साथ न मालूम कहाँ लिये जाता था।

देवीसिंह ने भूतनाथ के उदास और मुरझाये चेहरे को बड़े गौर से देखा और फिर आगे बढ़कर उससे पूछा

देवीसिंह-क्यों साहब, आप कहाँ जा रहे हैं और वह आपका साथी कौन है?

भूतनाथ-(अपने साथी की तरफ इशारा करके) इन्हें आप नहीं जानते। इनके साथ मैं एक जरूरी काम के लिए जा रहा हूँ, आप कमलिनीजी से कह दीजियेगा कि आज रात को प्रतिज्ञानुसार मैं उनसे मिल नहीं सकता।

देवीसिंह–सो क्यों?

भूतनाथ-इसलिए कि इनके साथ जाता हूँ, क्या जाने कब छुट्टी मिले!

देवीसिंह-इनके साथ कहाँ जाते हो?

भूतनाथ—(घबराहट और लाचारी के ढंग से) सो तो मुझे मालूम नहीं!

इतना कहके उसने एक लम्बी साँस ली। अब देवीसिंह के दिमाग में वे बातें घूमने लगीं जो भूतनाथ के विषय में कमलिनी ने कही थीं। देवीसिंह ने भूतनाथ की कलाई पकड़ ली और एक तरफ ले जाकर पूछा, "दोस्त, क्या तुम इतना भी नहीं बता सकते कि कहाँ जा रहे हो? ऐयार लोगों का आपस में क्या ऐसा ही बर्ताव होता है! क्या तुम और हम दोनों एक ही के पक्ष के नहीं हैं और क्या तुम अपने दिल की बातें मुझसे भी नहीं कह सकते? बोलो-बोलो, मेरी बातों का कुछ जवाब दो! वाह-वाह, यह क्या! तुम रो क्यों रहे हो?"

भूतनाथ—(आँखों से आँसू पोंछकर) हाय, मैं कुछ भी नहीं कह सकता कि मेरे दिल की क्या अवस्था है। (मुहब्बत से देवीसिंह का हाथ पकड़ के) मैं तुमको अपना बड़ा भाई समझता हूँ, और तुम इस बात का अपने दिल में ध्यान भी न लाना कि भूतनाथ तुम्हारे साथ चालबाजी की बातें करेगा, मगर हाय, मैं मजबूर है, कुछ नहीं कह सकता! (विचित्र मनुष्य की तरफ इशारा करके) मैं और मेरा सर्वस्व इस हरामजादे की मुट्ठी में है और छुटकारे की कोई आशा नहीं! अफसोस! अच्छा दोस्त, अब मुझे बिदा दो, अगर जीता रहा तो फिर मिलूंगा!

देवीसिंह-भूतनाथ, तुम कैसी बे-सिर-पैर की बातें कर रहे हो, कुछ समझ में नहीं आता! आश्चर्य है कि तुम्हारे ऐसा बहादुर आदमी और इस तरह की बातें करे। साफ-साफ कहो तो कुछ मालूम हो, कदाचित् मैं तुम्हारी मदद कर सकूँ।

भूतनाथ-नहीं, तुम कुछ भी मदद नहीं कर सकते। मेरा नसीबा बिगड़ा हुआ है और इसे वही ठीक कर सकता है जिसने इसे बनाया है।

देवीसिंह --मैं इस बात को नहीं मानता। निःसन्देह ईश्वर सबके ऊपर है, परन्तु साथ ही इसके यह भी समझना चाहिए कि वह किसी को बनाने और बिगाड़ने के लिए