पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 3.djvu/१७८

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अपने हाथ-पैर से काम नहीं लेता। यदि ऐसा करे या हो तो उसमें और मनुष्य में कहने के लिए भी कोई भेद बाकी न रह जाय, अतएव कह सकते हैं कि केवल उसकी इच्छा ही इतनी प्रबल है कि वह किसी तरह टल नहीं सकती और वह इस पृथ्वी का काम इसी पर रहने वालों से कराता रहता है। इसका तत्त्व यह है कि वह जिस मनुष्य द्वारा अपनी इच्छा पूरी किया चाहता है उसके अन्दर उस बुद्धि और साहस का संचार करता है जिसका मुकाबला करने वाला पृथ्वी में सिवाय बुद्धि और साहस के और कोई नहीं। इसके साथ-ही-साथ जिससे वह रुष्ट होता है उससे बुद्धि और साहस छीन लेता है। बस, इन्हा के द्वारा वह अपनी इच्छा पूरी करके नित्य नवीन नाटक देखा करता है और यही उसकी कारीगरी है। मैं इस समय जब अपनी तरफ ध्यान देता हूँ तो ईश्वर की कृपा से अपने में साहस की कमी नहीं देखता और दिल को तुम्हारी मदद के लिए व्याकुल पाता हूँ और इससे भी निश्चय होता है कि मैं तुम्हारी सहायता कर सकता हूँ और यही ईश्वर की इच्छा है। तुम एकदम हताश मत हो जाओ और जान-बूझ के अपनी जान के दुश्मन मत बनो, असल-असल हाल कहो, फिर देखो कि मैं क्या करता हूँ।

भूतनाथ—तुम्हारा कहना बहुत ठीक है, परन्तु मुझे निश्चय है कि जब मैं अपना असल भेद तुमसे कह दूंगा तो तुम स्वयं मुझसे घृणा करोगे और चाहोगे कि यह दुष्ट किसी तरह मेरे सामने से दूर हो जाय! प्यारे दोस्त, जबसे मैंने अपनी प्रकृति बदलने का उद्योग किया है और ईश्वर के सामने कसम खाई है कि अपने माथे से बदनामी का टीका दर करके नेक, ईमानदार, सच्चा और सुयोग्य बनूंगा तब से मेरे हृदय की विचित्र अवस्था हो गई है। जब मुझे यह मालूम होता है कि मेरी पिछली बातें अब प्रकट हुआ चाहती हैं तब मुझे मौत से है बढ़ के कष्ट होता है, और जब मैं यह चाहता हूँ कि अपनी जान देकर भी किसी तरह इन बातों से छुटकारा पाऊँ तो उसी समय मुझे मालूम होता है कि मेरे अन्दर दिल के पास ही बैठा हुआ कोई कह रहा है कि खबरदार ऐसा न करना। तू कसम खा चुका है कि अपने सिर से बदनामी का टीका दूर करेगा। यदि ऐसा किये बिना मर जायगा तो ईश्वर के सामने झूठा होने के कारण नरक का भागी होगा, अर्थात् तेरी आत्मा जो कभी मरने वाली नहीं है, बड़ा कष्ट भोगेगी और हजारों वर्ष तक बिना पानी के मछली की तरह तड़पा करेगी। हाय, ये बातें ऐसी हैं कि मुझे बेचैन किए देती हैं। ऐसी अवस्था में तुम स्वयं सोच सकते हो कि अपनी बुराइयों को मैं अपने ही मुंह से कैसे प्रकट करूं और तमसे क्या कहें। यदि जी कड़ा करके कुछ कहूंगा भी तो निःसन्देह तुम मुझसे घृणा करोग जैसाकि तुमसे कह चुका हूँ।

देवीसिंह-नहीं-नहीं, कदापि नहीं! मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि यदि मुझे यह भी मालूम हो जायगा कि तुम मेरे पिता के घातक हो, जिन पर मेरा बड़ा ही स्नेह था तो भी मैं तुम्हें इसी तरह मुहब्बत की निगाह से देखूँगा, जैसाकि अब देख रहा हूँ! कहो, अब इससे ज्यादा मैं क्या कह सकता हूँ!

इतना सुनते ही भूतनाथ जिसने अपनी पीठ विचित्र मनुष्य की सरफ इसलिए कर रखी थी कि चेहरे के उतार-चढ़ाव से वह उसकी बातों का कुछ भेद न पा सके, देवीसिंह के पैरों पर गिर पड़ा और रोने लगा। देवीसिंह ने उसे उठाकर गले से लगा लिया और