पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 3.djvu/१७९

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कहा―“देखो, जी कड़ा करो, घबड़ाओ मत, ईश्वर जो कुछ करेगा, अच्छा ही करेगा, क्योंकि नेकी की राह चलने वालों की वह सहायता किया ही करता है और उनके पिछले ऐबों पर ध्यान नहीं देता, यदि वह जान जाय कि यह व्यक्ति भविष्य में नेक और सच्चा निकलेगा।”

विचित्र मनुष्य जो दूर खड़ा यह तमाशा देख रहा था, जी में बहुत ही कुढ़ा और उसने भूतनाथ से ललकार के कहा, “भूतनाथ, यह क्या बात है? तुम राह-चलते हर एक ऐरे-गैरे के सामने खड़े होकर घण्टों कलपा करोगे और मैं खड़ा पहरा दिया करूँगा? यह नहीं हो सकता। मैं तुम्हारा ताबेदार नहीं हूँ बल्कि तुम मेरे ताबेदार हो, चलो, जल्दी करो, अब मैं नहीं रुक सकता!”

भूतनाथ ने लाचारी और मजबूरी की निगाह देवीसिंह पर डाली और सिर नीचा करके चुप हो रहा। देवीसिंह ने पहिले तो भूतनाथ के कान में धीरे से कुछ कहा और इसके बाद विचित्र मनुष्य की तरफ बढ़कर बोले―

देवीसिंह―क्यों बे, क्या तूने मुझे ऐरे-गैरों में समझ लिया? जुबान सँभाल के नहीं बोलता! क्या तू नहीं जानता कि मैं कौन हूँ?

विचित्र―मैं खूब जानता हूँ कि तुम्हारा नाम देवीसिंह है और तुम राजा वीरेन्द्रसिंह के ऐयार हो, मगर मुझे इससे क्या मतलब? तुमने मेरे आसामी को इतनी देर तक क्यों रोक रखा हैं?

देवीसिंह―भूतनाथ तेरा आसामी नहीं है बल्कि मेरा साथी ऐयार है। कदाचित् अपने पागलपन में तूने इसे अपना आसामी समझ लिया हो तो भी जो कुछ कहना हो भूतनाथ से कह, तुझे पागल समझकर मैं कुछ न कहूँगा छोड़ दूँगा, मगर तू इतना हौसला नहीं कर सकता कि राजा वीरेन्द्रसिंह के ऐयारों को 'ऐरे-गैरे' कहकर सम्बोधन करे! क्या तू नहीं जानता कि ऐयार की इज्जत राजदीवान से कम नहीं होती? मैं बेशक तुझे इस बेअदबी की सजा दूँगा।

विचित्र मनुष्य―तुम मुझे क्या सजा दोगे, मैं तुम्हें समझता ही क्या हूँ!

देवीसिंह―तो मैं दिखाऊँ तमाशा तुझे और बता दूँ कि राजा वीरेन्द्रसिंह के ऐयार लोग कैसे होते हैं?

विचित्र मनुष्य―जो कुछ करते बने करो, मैं तैयार हूँ, तुमसे डरता नहीं।

इतना कहकर विचित्र मनुष्य ने म्यान से तलवार निकाल ली और देवीसिंह ने भी जमीन पर से पत्थर का एक टुकड़ा उठा लिया। विचित्र मनुष्य ने झपटकर देवीसिंह पर तलवार का वार किया। देवीसिंह उछलकर दूर जा खड़े हुए और उस पत्थर के टुकड़े से अपने बैरी पर वार किया, मगर उसने पैंतरा बदलकर अपने को बचा लिया और देवीसिंह पर झपटा। अब की दफे देवीसिंह ने फुर्ती के साथ पत्थर के दो टुकड़े दोनों हाथों में उठा लिये और दुश्मन के वार को खाली देकर एक पत्थर चलाया। जब तक विचित्र मनुष्य उस वार को बचाए तब तक देवीसिंह ने दूसरा टुकड़ा चलाया जो उसके घुटने पर बैठा और उसे सख्त चोट लगी। देवीसिंह ने विलम्ब न किया, फिर एक पत्थर उठा लिया और अपने वैरी को दूर से ही मारा। पैर में चोट लग जाने के कारण वह उछलकर अलग