पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 4.djvu/२४४

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चिट्ठी में यह लिखा हुआ था––

"चिरंजीव कृष्ण योग्य लिखी गोपालसिंह का आशीर्वाद––आज तीन दिन हुए एक पत्र तुम्हें भेज चुका हूँ। तुम छोटे भाई हो, इसलिए विशेष लिखना उचित नहीं समझता, केवल इतमा लिखता हूँ कि चिट्ठी देखते ही चले आओ और अपनी भावज को तथा उनकी दोनों बहिनों को जहाँ तक जल्दी हो सके, यहाँ ले आओ।"

इस चिट्ठी को बारी-बारी से सभी ने पढ़ा।

कमलिनी––मगर इस चिट्ठी में कोई ऐसी बात नहीं लिखी है, जिससे लक्ष्मीदेवी के साथ हमदर्दी पाई जाती हो! जब हाथ दुखाने बैठे ही थे तो एक चिट्ठी इनके नाम की भी लिख डाली होती! इन्हें नहीं तो मुझी को कुछ लिख भेजा होता। मेरा उनका सामना हुए भी तो बहुत दिन नहीं हुए। मालूम होता है कि थोड़े ही दिनों में वे बेमुरौवत और कृतघ्न भी हो गए।

कृष्ण जिन्न––कृतघ्न का शब्द तुमने बहुत ठीक कहा! मालूम होता है कि तुम उन पर अपनी कार्रवाइयों का अहसान डालना चाहती हो?

कमलिनी––(क्रोध से) क्यों नहीं? क्या मैंने उनके लिए थोड़ी मेहनत की है? और इसका क्या यही बदला था?

कृष्ण जिन्न––जब अहसान और उसके बदले का खयाल आ गया तो मुहब्बत कैसी और प्रेम कैसा? मुहब्बत और प्रेम में अहसान और बदला चुकाने का तो खयाल ही नहीं होना चाहिए। यह तो रोजगार और लेने-देने का सौदा हो गया! और अगर तुम इसी बदला चुकाने वाली कार्रवाई को प्रेमभाव समझती हो तो घबराती क्यों हो? समझ लो कि दूकानदार नादेहन्द है, मगर बदला देने योग्य है, तो कभी-न-कभी बदला चुक ही जायगा। हाय हाय, औरतें भी कितना जल्द अहसान जताने लगती हैं! क्या तुमने कभी यह भी सोचा है कि तुम पर किसने अहसान किया और तुम उसका बदला किस तरह चुका सकती हो? अगर तुम्हारा ऐसा ही मिजाज है और बदला चुकाये जाने की तुम ऐसी ही भूखी हो तो बस हो चुका। तुम्हारे हाथों से किसी गरीब असमर्थ या दीन-दुखिया का भला कैसे हो सकता है? क्योंकि उसे तो तुम बदला चुकाने लायक समझोगी ही नहीं!

कमलिनी―(कुछ शरमाकर) क्या राजा गोपालसिंह भी कोई असमर्थ और दीन हैं?

कृष्ण जिन्न––नहीं हैं। तो तुमने राजा समझकर उन पर अहसान किया था? अगर ऐसा है तो मैं तुम्हें उनसे बहुत-सा रुपया दिलवा सकता हूँ।

कमलिनी––क्षमा करें, मैं रुपये की भूखी नहीं हूँ।

कृष्ण जिन्न––बहुत ठीक, तब तुम प्रेम की भूखी होगी?

कमलिनी––बेशक!

कृष्ण जिन्न––अच्छा तो जो आदमी प्रेम का भूखा है, उसे दीन, असमर्थ और समर्थ में अहसान करते समय भेद क्यों दिखने लगा और इसके देखने की जरूरत ही क्या है? ऐसी अवस्था में यही जान पड़ता है कि तुम्हारे हाथों से गरीब, असमर्थ और