पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 4.djvu/४६

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जाता तो वह मुझे कैद कर लेता और रिक्तगन्थ के लिए मेरी बड़ी दुर्दशा करता। बस इसी खयाल ने मुझे बदहवास कर दिया और मैं ऐसा डरी कि तन-बदन की सुध जाती रही। क्या दिग्विजयसिंह कभी इस बात का सोचता था कि उसकी दारोगा से दोस्ती है और दारोगा लाडिली का पक्षपाती है ? कभी नहीं, वह बड़ा मतलबी और खोटा था।

वीरेन्द्रसिंह--बेशक ऐसा ही है और तुम्हारा डरना बहुत वाजिब था, मगर हाँ, एक बात तो तुमने कही ही नहीं।

लाड़िली--वह क्या ?

वीरेन्द्रसिंह--'आँचल पर गुलामी की दस्तावेज' से क्या मतलब था?

राजा वीरेन्द्रसिंह की यह बात सुनकर लाड़िली शर्मा गई और उसने अपने दिल की अवस्था को रोककर सिर नीचा कर लिया। जब राजा वीरेन्द्रसिंह ने पुनः टोका तब हाथ जोड़कर बोली, "आशा है कि महाराजा साहब इसका जवाब चाहने के लिए जिद न करेंगे और मेरा यह अपराध क्षमा करेंगे। मैं इसका जवाब अभी नहीं देना चाहती और बहाना करना या झूठ बोलना भी पसन्द नहीं करती!"

लाड़िली की बात सुनकर राजा वीरेन्द्रसिंह चुप हो रहे और कोई दूसरी बात पूछा ही चाहते थे कि भैरोंसिंह ने कमरे के अन्दर पैर रक्खा।

वीरेन्द्रसिंह--(भैरों से) क्या बात है?

भैरोसिंह--बाहर से खबर आई है कि मायारानी के दारोगा के गुरुभाई इन्द्रदेव जिनका हाल मैं एक दफे अर्ज कर चुका हूँ, महाराज का दर्शन करने के लिए हाजिर हुए हैं। उन्हें ठहराने की कोशिश की गई थी मगर वह कहते हैं कि मैं पल-भर भी नहीं अटक सकता और शीघ्र ही मुलाकात की आशा रखता हूँ तथा मुलाकात भी महल के अन्दर लक्ष्मीदेवी के सामने करूँगा। यदि इस बात में महाराजा साहब को उज्र हो तो लक्ष्मीदेवी से राय लें और जैसा वह कहे वैसा करें।

इसके पहले कि वीरेन्द्रसिंह कुछ सोचें या लक्ष्मीदेवी से राय लें लक्ष्मीदेवी अपनी खुशी को न रोक सकी, उठ खड़ी हुई और हाथ जोड़कर बोली, “महाराज से मैं सविनय प्रार्थना करती हूँ कि इन्द्रदेवजी को इसी जगह आने की आज्ञा दी जाय। वे मेरे धर्म के पिता हैं, मैं अपना किस्सा कहते समय अर्ज कर चुकी हूँ कि उन्होंने ही मेरी जान बचाई थी, वे हम लोगों के सच्चे खैरख्वाह और भलाई चाहने वाले हैं।"

वीरेन्द्रसिंह–बेशक-बेशक, हम उन्हें इसी जगह बुलायेंगे, हमारी लड़कियों को उनसे पर्दा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। (भैरोंसिंह की तरफ देखकर) तुम स्वयं जाओ और उन्हें शीघ्र इसी जगह ले आओ।

"बहुत अच्छा" कहकर भैरोंसिंह चला गया और थोड़ी ही देर में इन्द्रदेव को अपने साथ लिये हुए आ पहुँचा। लक्ष्मीदेवी उन्हें देखते ही उनके पैरों पर गिर पड़ी और आँसू बहाने लगी। इन्द्रदेव ने उसके सिर पर हाथ फेर कर आशीर्वाद दिया, कमलिनी और लाडिली ने भी उन्हें प्रणाम किया और राजा वीरेन्द्रसिंह ने सलाम का जवाब देने के बाद उन्हें बड़ी खातिर से अपने पास बैठाया।