पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 5.djvu/४२

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आहट मालूम हुई और पीछे घूमकर देखने से कुँअर आनन्दसिंह पर निगाह पड़ी।

इन्द्रजीतसिंह––तुम क्यों चले आये?

आनन्दसिंह––आपको मैंने कई दफे नीचे से पुकारा, मगर आपने कुछ जवाब न दिया तो लाचार यहाँ आना पड़ा।

इन्द्रजीत––क्यों?

आनन्दसिंह––राजा गोपालसिंह की आज्ञा से।

इन्द्रजीतसिंह––राजा गोपालसिंह कहाँ हैं?

आनन्दसिंह––उन दोनों आदमियों में से जो नीचे उतरे थे और जिन्हें आपने बेहोश कर दिया था, एक राजा गोपालसिंह थे। जब आप ऊपर चढ़ आए तब मैंने एक का नकाब हटाया और तिलिस्मी खंजर की रोशनी में चेहरा देखा तो मालूम हुआ कि गोपालसिंह हैं। उस समय मुझे इस बात का अफसोस हुआ कि बेहोश करने के बाद आपने उनकी सूरत नहीं देखी, अगर देखते तो उन्हें छोड़कर यहाँ न आते। खैर जब मैंने उन्हें पहचाना तो होश में लाने के लिए उद्योग करना उचित जाना अस्तु तिलिस्मी खंजर के जोड़ की अँगूठी उनके बदन में लगाई जिसके थोड़ी ही देर बाद वह होश में आये और उठ बैठे। होश में आने के बाद पहले-पहले जो कुछ उनके मुँह से निकला, वह यह था कि "कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने धोखा खाया, मुझे बेहोश करने की क्या जरूरत थी? मैं तो खुद उनसे मिलने के लिए यहाँ आया था!" इतना कहकर उन्होंने मेरी तरफ देखा यद्यपि उस समय चाँदनी वहाँ से हट गई थी मगर उन्होंने मुझे बहुत जल्द पहचान लिया और पूछा कि 'तुम्हारे बड़े भाई कहाँ हैं?' मैंने उनसे कुछ छिपाना उचित न जाना और कह दिया कि 'इसी कमन्द के सहारे ऊपर चले गए हैं।' सुन कर वे बहुत रंज हुए और क्रोध से बोले कि 'सब काम लड़कपन और नादानी का किया करते हैं। उन्हें बहुत जल्द ऊपर से बुला लो।' मैंने आपको कई दफे पुकारा मगर आप न बोले तब उन्होंने घुड़क के कहा कि 'क्यों व्यर्थ देर कर रहो हो, तुम खुद ऊपर जाओ और जल्द बुला लाओ।' मैंने कहा कि मुझे यहाँ से हटने की आज्ञा नहीं है आप खुद जाइये और बुला लाइये, मगर इतना सुनकर वे और भी रंज हुए और बोले, "अगर मुझमें ऊपर जाने की ताकत होती तो मैं तुम्हें इतना कहता ही नहीं! बेहोशी के कारण मेरी रग-रग कमजोर हो रही है, तुम अगर उनको बुला लाने में विलम्ब करोगे तो पछताओगे, बस अब मैं इससे ज्यादा और कुछ न कहूँगा, जो ईश्वर की मर्जी होगी और जो कुछ तुम लोगों के भाग्य में लिखा होगा सो होगा।" उनकी बातें ऐसी न थीं कि मैं सुनता और चुपचाप खड़ा रह जाता, आखिर लाचार होकर आपको बुलाने के लिए आना पड़ा। अब आप जल्द चलिए देर न कीजिए।

आनन्दसिंह की बातें सुनकर इन्द्रजीतसिंह को बहुत रंज हुआ और उन्होंने क्रोध भरी आवाज में कहा––

इन्द्रजीतसिंह––आखिर तुमसे नादानी हो ही गई?

आनन्दसिंह––(आश्चर्य से) सो क्या?

इन्द्रजीतसिंह––तुमने उस दूसरे के चेहरे पर की भी नकाब हटाकर देखा कि