पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 6.djvu/१३

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मैंने जयपाल को इस बात की कसम भी खिला दी थी कि अब वह लक्ष्मीदेवी और बल-भद्रसिंह से किसी तरह की बुराई न करेगा। मगर अफसोस, उसने (जयपाल ने) मेरे साथ दगा करके मुझे धोखे में डाल दिया और वह काम कर गुजरा जो किया चाहता था। इसी तरह मुझे वलभद्र सिंह के बारे में भी धोखा हुआ। दुश्मनों ने उन्हें कैद कर लिया और मुझे हर तरह से विश्वास दिला दिया कि बलभद्र सिंह मर गए । लक्ष्मीदेवी के बारे में जो कुछ चालाकी दारोगा ने की, उसका भी मुझे कुछ पता न लगा और न मैं कई वर्षों तक लक्ष्मीदेवी की सूरत ही देख सका कि पहचान लेता। बहुत दिनों के बाद जब मैंने नकली लक्ष्मी देवी को देखा भी तो मुझे किसी भी तरह का शक न हुआ, क्योंकि लड़कपन की सूरत और अधेड़पन की सूरत में बहुत बड़ा फर्क पड़ जाता है। इसके अतिरिक्त जिन दिनों मैंने नकली लक्ष्मीदेवी को देखा था, उस समय उनकी दोनों बहिनें अर्थात् श्यामा (कमलिनी) और लाडिली भी उसके साथ ही रहती थीं, जब वे ही दोनों उसकी बहन होकर धोखे में पड़ गईं तो मेरी कौन गिनती है ?

बहुत दिनों के बाद जब यह कागज का मुट्ठा मेरे यहाँ से चोरी हो गया, तब मैं घबराया और डरा कि समय पर चोरी गया हुआ वह मुट्ठा मुझको मुजरिम बना देगा, और आखिर ऐसा ही हुआ । दुष्टों ने वही कागजों का मुट्ठा कैदखाने में बलभद्रसिंह को दिखाकर मेरी तरफ से उनका दिल फेर दिया और तमाम दोष मेरे ही सिर पर थोपा । इसके बाद और भी कई वर्ष बीत जाने पर जब राजा गोपालसिंह के मरने की खबर उड़ी और इस बात में किसी को किसी तरह का शक न रहा, तब धीरे-धीरे मुझे दारोगा और जयपाल की शैतानी का कुछ पता लगा, मगर फिर मैंने जान-बूझकर तरह दे दिया और सोचा कि अब उन बातों को खोदने से फायदा ही क्या, जब कि खुद राजा गोपालसिंह ही इस दुनिया से उठ गये तो मैं किसके लिए इन बखेड़ों को उठाऊँ ? (हाथ जोड़कर) बेशक यही मेरा कसूर है और इसीलिए मेरा भाई भी रंज है। हाँ इधर जब कि मैंने देखा कि अब श्रीमान् राजा वीरेन्द्रसिंह का दौरा-दौरा है और कमलिनी भी उस घर से निकल खड़ी हुई तब मैंने भी सिर उठाया और अबकी दफे नेकनामी के साथ नाम पैदा करने का इरादा कर लिया। इस बीच में मुझ पर बड़ी आफतें आई, मेरे मालिक रणधीरसिंह भी मुझसे बिगड़ गये और मैं अपना काला मुंह लेकर दुनिया से किनारे हो बैठा तथा अपने को मरा हुआ मशहूर कर दिया अब कहाँ तक बयान करूँ, बात तो यह है कि मैं सिर से पैर तक अपने को कसूरवार समझकर ही महाराजा की शरण में

जीतसिंह-तुम्हारी पिछली कार्रवाई का बहुत-सा हाल महाराज को मालूम हो चुका है, उस जमाने में इन्दिरा को बचाने के लिए जो कार्रवाइयाँ तुमने की थीं उनसे महाराज प्रसन्न हैं, खास करके इसलिए कि तुम्हारे हरएक काम में दबंगता का हिस्सा ज्यादा था और तुम सच्चे दिल से इन्द्रदेव के साथ दोस्ती का हक अदा कर रहे थे,इस जगह एक बात का बड़ा ताज्जुब है।

भूतनाथ-वह क्या ?

जीतसिंह-इन्दिरा के बारे में जो-जो काम तुमने किये थे वे इन्द्रदेव से तो तुमने