पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 6.djvu/६६

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भी खबर नहीं रखते थे कि उनके घर में क्या हो रहा है, या उनके कर्मचारियों ने उन्हें कैसे जाल में फंसा रखा है। जिस राजा को अपने घर की खबर न होगी, वह प्रजा का क्या उपकार कर सकता है, और ऐसा राजा अगर संकट में पड़ जाये तो आश्चर्य ही क्या है ! केवल इतना ही नहीं, इनके दुःख भोगने का एक सबब और भी है। बड़ों ने कहा है कि 'स्त्री के आगे अपने भेद की बात प्रकट करना बुद्धिमानों का काम नहीं है' परन्तु राजा गोपालसिंह ने इस बात पर कुछ भी ध्यान न दिया, और दुष्टा मायारानी की मुहब्बत में फंसकर तथा अपने भेदों को बताकर बर्बाद हो गये। सज्जन और सरल स्वभाव होने से ही दुनिया का काम नहीं चलता, कुछ नीति का भी अवलम्बन करना ही पड़ता है। इसी तरह महाराज शिवदत्त को देखिए, जिसे खुशादमियों ने मिल-जुलकर बर्बाद कर दिया। जो लोग खुशामद में पड़कर अपने को सबसे बड़ा समझ बैठते हैं, और दुश्मन को कोई चीज नहीं समझते हैं, उनकी वैसी ही गति होती है, जैसी शिवदत्त की हुई। दुष्टों और दुर्जनों की बात जाने दीजिए, उनके बुरे कामों का तो फल मिलना ही चाहिए, मिला ही है और मिलेगा ही, उनका जिक्रतो मैं पीछे करूँगा, अभी तो मैं उन लोगों की तरफ इशारा करता हूँ जो वास्तव में बुरे नहीं थे, मगर नीति पर न चलने तथा बुरी सोहबत में पड़े रहने के कारण संकट में पड़ गए। मैं दावे के साथ कहता हूँ कि भूतनाथ ऐसा नेक दयावान और चतुर ऐयार बहुत कम दिखाई देगा, मगर लालच और ऐयाशी के फेर में पड़कर यह ऐसा बर्बाद हुआ कि दुनिया भर में मुंह छिपाने और अपने को मुर्दा मशहूर करने पर भी इसे सुख की नींद नसीब न हुई । अगर यह मेहनत करके ईमानदारी के साथ दौलत पैदा करना चाहता तो आज इसकी दौलत का अन्दाज करना कठिन होता, और अगर ऐयाशी के फेर में न पड़ा होता तो आज नाती-पोतों से इसका घर दूसरों के लिए नजीर गिना जाता। इसने सोचा कि मैं मालदार हूँ, होशियार हूँ, चालाक हूँ, और ऐयार हूँ-कुलटा स्त्रियों और रण्डियों की सोहबत का मजा लेकर सफाई के साथ अलग हो जाऊँगा, मगर इसे अद मालूम हुआ होगा कि रण्डियाँ ऐयारों के भी कान काटती हैं। नागर वगैरह के बर्ताव को जब यह याद करता होगा, तब इसके कलेजे में चोट-सी लगती होगी। मैं इस समय इसकी शिकायत करने पर उतारू नहीं हुआ हूँ, बल्कि इसके दिल पर से पहाड़-सा बोझ हटाकर उसे हल्का करना चाहता हूँ, क्योंकि इसे मैं अपना दोस्त समझता था, और मैं समझता हूँ,हां, इधर कई वर्षों से इसका विश्वास अवश्य उठ गया था और मैं इसकी सोहबत पसन्द नहीं करता था, मगर इसमें मेरा कोई कसूर नहीं, किसी का चाल-चलन जब खराब हो जाता है, तब बुद्धिमान लोग उसका विश्वास नहीं करते और शास्त्र की भी ऐसी ही आज्ञा है, अतएव मुझे भी वैसा ही करना पड़ा। यद्यपि मैंने इसे किसी तरह की तकलीफ नहीं पहुँचाई परन्तु इसकी दोस्ती को एकदम भूल गया। मुलाकात होने पर उसी तरह बर्ताव करता था जैसा लोग नये मुलाकाती के साथ किया करते हैं। हाँ, अब जबकि यह अपनी चाल-चलन को सुधारकर आदमी बना है, अपनी भूलों को सोच-समझकर पछता चुका है, एक अच्छे ढंग से नेकी के साथ नामवरी पैदा करता हुआ दुनिया में फिर दिखाई देने लगा है और महाराज भी इसकी योग्यता से प्रसन्न होकर इसके अपराधों को (दुनिया के लिए) क्षमा कर चुके हैं, तब मैंने भी इसके अपराधों को दिल-ही-दिल में क्षमा कर इसे