पृष्ठ:चंद्रकांता संतति भाग 6.djvu/७६

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मियों को जरूर जानती है जिन्होंने दयाराम के साथ ऐसी दुश्मनी की है।

भूतनाथ का शक काशी ही वालों पर था इसलिए काशी ही में अड्डा बनाकर इधर-उधर घूमना और दयाराम का पता लगाना आरम्भ किया। जैसे-जैसे दिन बीतता था, भूतनाथ का शक भी नागर के ऊपर बढ़ता जाता था। सुनते हैं कि उसी जमाने में भूतनाथ ने एक औरत के साथ काशीजी में ही शादी भी कर ली थी जिससे कि नानक पैदा हुआ है क्योंकि इस झमेले में भूतनाथ को बहुत दिनों तक काशी में रहना पड़ा था।

यह सच है कि कम्बख्त रंडियाँ रुपये के सिवा और किसी की नहीं होती। जो दयाराम कि नागर को चाहता, मानता और दिल खोलकर रुपया देता था, नागर उसी के खून की प्यासी हो गई क्योंकि ऐसा करने से उसे विशेष प्राप्ति की आशा थी। भूतनाथ ने यद्यपि अपने दिल का हाल नागर से बयान नहीं किया मगर नागर को विश्वास हो गया कि भूतनाथ को उस पर शक है और यह दयाराम ही की खोज में काशी आया हुआ है, अतः नागर ने अपना उचित प्रबन्ध करके काशी छोड़ दी और गुप्त रीति से जमानिया में जा बसी। भूतनाथ भी मिट्टी सूंघता हुआ उसकी खोज में जमानिया जा पहुँचा और एक भाड़े का मकान लेकर वहाँ रहने लगा।

इस खोज-ढूंढ़ में वर्षों बीत गये, मगर दयाराम का पता न लगा। भूतनाथ ने अपने मित्र इन्द्रदेव से भी मदद मांगी और इन्द्रदेव ने मदद दी भी मगर नतीजा कुछ भी न निकला। इन्द्रदेव ही के कहने से मैं उन दिनों भूतनाथ का मददगार बन गया था ।

इस किस्से के सम्बन्ध में रणधीरसिंह के रिश्तेदारों की तथा जमानिया गयाजी और राजगृह इत्यादि की भी बहुत-सी बातें कही जा सकती हैं परन्तु मैं भी भूतनाथ का मददगार था, मगर अफसोस, भूतनाथ की किस्मत तो कुछ और ही कराना चाहती थी इसलिए हम लोगों की मेहनत का कोई अच्छा नतीजा न निकला, बल्कि एक दिन जब मिलने के लिए मैं भूतनाथ के डेरे पर गया तो मुलाकात होने के साथ ही भूतनाथ ने आँखें बदलकर मुझसे कहा, "दलीपशाह, मैं तो तुम्हें बहुत अच्छा और नेक समझता था मगर तुम बहुत ही बुरे और दगाबाज निकले । मुझे ठीक-ठीक पता लग चुका है कि दयाराम का भेद तुम्हारे दिल के अन्दर है और तुम हमारे दुश्मनों के मददगार हो और भेदिए हो तथा खूब जानते हो कि इस समय दयाराम कहाँ हैं । तुम्हारे लिए यही अच्छा है कि सीधी तरह उनका (दयाराम का) पता बता दो, नहीं तो मैं तुम्हारे साथ बुरी तरह पेश आऊँगा और तुम्हारी मिट्टी पलीद करके छोडूंगा।"

महाराज, मैं नहीं कह सकता कि उस समय भूतनाथ की इन बेतुकी बातों को सुनकर मुझे कितना क्रोध चढ़ आया। इसके पास बैठा भी नहीं और न इसकी बात का कुछ जवाब ही दिया,T चुपचाप पिछले पैर लौटा और मकान के बाहर निकल आया। मेरा घोड़ा बाहर खड़ा था, मैं उस पर सवार होकर सीधे इन्द्रदेव की तरफ चला गया।(इन्द्रदेव की तरफ हाथ का इशारा करके) दूसरे दिन इनके पास पहुंचा और जो कुछ बीती थी इनसे कह सुनायी। इन्हें भी भूतनाथ की बातें बहुत बुरी मालूम हुई और एक लम्बी साँस लेकर ये मुझसे बोले, "मैं नहीं जानता कि इन दो-चार दिनों में भूतनाथ को कौन-सी नई बात मालूम हो गई और किस बुनियाद पर उसने तुम्हारे साथ ऐसा सलूक