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पृष्ठ:चतुरी चमार.djvu/५४

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चतुरी चमार



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का ख़र्च दें—धीरे-धीरे प्रोप्राइटर को रुपये दे देंगे, हमारे पास घर से ख़र्च तो एक ही महीने का आता है, अब वहाँ जाकर लिखेंगे, ख़र्च आएगा, तब देंगे। होटल तोड़ने के लिये कई बार हम लोगों से मैनेजर कह चुके है। बीच में तोड़ दिया, तो हम कहीं के न हुए। इम्तहान सिर पर है। हमने पहले से अपना इन्तज़ाम कर लिया।" मुझे ख़्याल आया अब पगली की रोटियाँ भी गई। वह अब चल भी नहीं सकती कि दूसरी जगह से माँग लाए। विद्यार्थी मन में यह सोचते हुए गए (अब मालूम हो रहा है) कि जैसा सड़ा खाना खिलाया है, दामों के लिये वैसे ही सड़क पर चक्कर खिलवाएँगे।

उनके जाने से होटल सूना हो गया। निश्चय हुआ कि इस महीने के बाद बंद कर दिया जायगा। संगम मेरे पास उस जाड़े में मेरी दी हुई एक बनियानी पहने हुए मुट्ठियाँ दोनों बग़लों में दबाए संसार का एक्स (X) बना हुआ सुबह-सुबह आकर बोला—"बाबूजी, मेरी दो महीने की तनख़्वाह बाक़ी है, आप दस रुपया काटकर मैनेजर साहब को बिल चुकाइएगा।" मैंने उसे धैर्य दिया। दस रुपए की कल्पना से गलकर हँसता हुआ बड़े मित्र-भाव से संगम मुझे देखने लगा। मैंने देखा, हँसते वक़्त उसका मुँह नवयुवतियों की आँखों को मात कर कानों तक फैल गया है।

दो-तीन दिन बाद एक मकान किराये पर लेकर मैनेजर को अपनी बेयरर चेक दस्तख़त करके देने से पहले मैंने कहा—"आपको चेक दिलवाने के लिये गंगा-पुस्तकमाला जाता हूँ, चेक में दस रुपए कम होंगे, संगम की दो महीने की तनख़्वाह बाक़ी है? उसने कहा है, मेरे रुपए रोककर होटल को रुपए दीजिएगा।" मैनेजर यानी प्रोप्राइटर साहब ने संगम को बुलाया। कहा—"क्यों रे, तू हमें बेईमान समझता है?" संगम सिटपिटा गया, मारे डर के उसकी ज़बान बंद हो गई। मैनेजर साहब उसे घूरकर मेरी ओर देखकर बोले—"आप मुझे ही रुपए दीजि-