पृष्ठ:चतुरी चमार.djvu/६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

५६



निराला



अच्छी तरह समझने लगा। मैं प्रहार करता हुआ जब थक जाता था, तब मेरे मनस्तत्त्व के सत्य-स्वरूप स्वामी सारदानन्दजी मुझे रंगीन छाया की तरह ढककर हँसते हुए तर कर देते थे। इन महादार्शनिक, महाकवि, स्वयंभू, मनस्वी, चिर-ब्रह्मचारी, सन्यासी, महापंडित, सर्वस्वत्यागी साक्षात् महावीर के समक्ष देवत्व, इन्द्रत्व और मुक्ति भी तुच्छ है। मैंने भी देश तथा प्रदेशों के बड़े-बड़े कवियों, दार्शनिकों, पंडितों तथा पुरुषों के साथ एक सर्वश्रेष्ठ उपाधि से भूषित किए हुए अनेकानेक लोगों को देखा है, पर वाहरे संसार, सत्य की कितनी खरी जाँच तूने की—महाविद्या ओर महापुरूष-चरित्रों का कितने पोच मस्तिकों में तूने पता लगाया! मैं ब्राह्मण था, किसी मनुष्य को सिर नहीं झुकाया, मेरे चरित्र का पूरा अध्ययन कीजिएगा, चरित्र और ज्ञान, जीवन और परिसमाप्ति में जो 'एजति, न एजति' को सार्थक करने वाले ब्रह्म थे, उन्होंने अपनी पूर्णता देकर मेरी स्वल्पता ले ली। अब दोनों भाव उन्हीं के हैं, एक से वह लड़ते हैं, दूसरे से बचते हैं—यही मेरा इस समय का जीवन है।

स्वामी सारदानन्दजी के जिन सेवक सन्यासी के हाथ से कटोरा लेकर स्वप्न में मैंने स्वामीजी को रसगुल्ला खिलाया था, उन्होंने मुझसे एक रोज़ एका एक कहा—"तुम मंत्र नहीं लोगे?—जाओ।" मैंने सोचा, "यहाँ महाप्रसाद की तरह मंत्र भी बँटता होगा, लेने में हर्ज क्या है?" मुझे बड़े को गुरु मानने में आपत्ति कभी नहीं रही, रहा सिर्फ़ गुरुडम के खिलाफ़, फिर मंत्र लेने से कुछ मिलता ही है; जहाँ मिलनेवाली सूचना हो, वहाँ पैर न बढ़ाए, ब्राह्मण का कोई बेवक़ूफ़ लड़का होगा। मैं सपाटा-चाल ज़ीना तय करके स्वामीजी के कमरे में पहुँचा और बैठ गया। उन्होंने पूछा, "क्या है?" मैंने कहा, "मंत्र लेने आया हूँ।" मेरे स्वर में न जाने क्या था। मुझे तंत्र-मंत्र पर बिल्कुल विश्वास न था। स्वामीजी प्रसन्न गंभीरता से बोले—"अच्छा, फिर कभी आना।"