चतुरी चमार
६७
आभा की आँखें, हृदय, वह सम्पूर्ण निश्चलता कह रही थी—"यह ठीक कह रहे हैं।"
नरेन्द्र ने आभा को देखा, फिर देखा—वह निगाह बदल चुकी थी, जो झुकती है। यह वह निगाह है, जो धूप की तरह लोगों को उठाती हुई उठ जाती है—फिर पृथ्वी पर नहीं झुकती। आभा हृदय से इतना कभी नहीं उठी।
"यह," नरेन्द्र ने मन में कहा—"यह आभा है।" खुलकर बोला—"आभा, चलो; मेरे घर में बहुत दिनों से अँधेरा है; उसमें प्रकाश भर दो। मैंने तुम्हारी शिक्षा के लिये जायदाद बेची है।"
होश में आते ही हृदय हिल उठा। आँखों में शङ्का आई—"आपको में लोग क्या कहेंगे?"
"मुझे कुछ नहीं कह सकते; सब अपनी-अपनी क़िस्मत को रोयेंगे, जिसे किसी तरह वे फूटा नहीं समझ पाए—थाने जायँगे, दारोग़ा के आगे-पीछे दुम हिलाएँगे—कुत्तों की तरह भौंकेंगे, पर कुछ कर नहीं सकते। सामने आकर काटना देशी कुत्ते जानते नहीं। मैं मुँह पर विलायती ठोकरें लगाना सीख चुका हूँ, तुम्हें भी सिखाना चाहता हूँ। आओ—"
नरेन्द्र आगे-आगे, इस दृढ़ता को सर्वस्व सौंपकर आभा पीछे-पीछे चली। बारहदरी की बग़ल में तीन आदमी खड़े थे, इनके आने से पहले चल दिए। नरेन्द्र ने देखा, पर उपेक्षा में भरकर रह गया। आभा ने देखा, मन में कहा—"ये वे ही हैं, जिन्हें रोज़ देखती और रोज़ समझती थी।"
द्वार खोलकर, दीपक जलाकर नरेन्द्र ने कहा—"आभा, अभी हमें कुछ रोज़ यहाँ रहना होगा। गाँववालों को बता जाना है कि हम भगने वाले नहीं थे—तुम्हें, भगानेवाला रास्ता बतलानेवाले थे।"
आभा प्रकाश में मुस्करा दी।