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निराला
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दूसरे दिन से कई दिनों तक लगातार नरेन्द्र को देख-देखकर गाँववालों ने घृणा से अपना ही सर झुका-झुका लिया, और घर-घर राय क़ायम हो गई कि आभा के बाप की नाक कट गई। कीच पर ढेले चलाने से छीटे अपने ऊपर आएँगे, यह समझाकर वयोवृद्धों ने आभा के घरवालों को थाने जाने से रोका।
इस तरह की अनेक अड़चनों को आसानी से पार कर नरेन्द्र आभा को ले कर साल-भर से दिल्ली में है। आने के साथ ही, अपनी और आभा की एक साथ उतरवाई तस्वीर ब्याह के सूक्ष्म स्वतन्त्र ब्यौरे से मासिक तथा साप्ताहिकों के सम्पादकों के पास भेज दी। भारत तथा स्त्री-जाति के उद्धार-कल्प से सम्पादकों की लिखी ओजस्विनी टिप्पणियों के साथ दोनों का सुन्दर चित्र प्रकाशित हुआ। छोटे-छोटे पत्रवालों ने ब्लाक मँगा-मँगाकर और ऊँची आवाज़ लगाई। आभा तस्वीरें देख-देख, तारीफ़ पढ़-पढ़कर मुस्कराती रही।
घर पर उस्तादों को बुलाकर नरेन्द्र आभा को नृत्यगीत की शिक्षा दिलवाने लगा—इसको भी एक साल हो चुका। अक्षर-विज्ञान का ख़ुद शिक्षक बना। साल-भर में आभा अच्छी तरह हिन्दी और उर्दू समझ लेने लगी है। बुद्धि में इतनी बढ़ गई है, जैसे कई साल से तालीम पा रही हो। जैसा सुरीला, कोमल गला उसका था, स्टेज पर उतारने पर दर्शक ताँगेवालों और प्रशंसक पत्रवालों में उसके उतर जाने की नरेन्द्र को शंका न हुई।
आभा का बड़े-बड़े चित्रों, पोस्टरों, दैनिक, साप्ताहिक-मासिक पत्रों में बड़ा विज्ञापन हुआ। 'लीडर' में विज्ञापन के दाम अग्रिम भेजकर नरेन्द्र ने सम्पादकीय कालम में तारीफ़ छापने का अनुरोध किया। लोगों की तो आज भी बँधी धारणा है कि आँखें मूँदने पर ज़्यादा देख पड़ता है। फलतः सम्पादक के क़लम ने कालम-के-कालम रंग डाले। आभा