पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/१२

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पहिला हिस्सा
 

पहिला हिस्सा।वाचा।कुछ नहीं,कल से तुम उसके तोडने में हाथ लगा दो,मगर एक बात तुम्हारे फायदे की हम कहते हैं।

इन्द्र०।वृह क्या?

वावा॰तुम उसके तोड़ने में अपने भाई अनिन्द को भी शरीक कर लो,ऐसा करने से दौलत भी दूनी मिलेगी और नास मी दोनों भाइयों की दुनिया में हमेशा के लिए बना रहेगा।

इन्द्र०।उसकी तो तबीयत ही ठीक नहीं!

वाचा॰।क्या हर्ज है, तुम अभी जाकर जिस तरह बने उसे मेरे।पास ले आओ,मैं बात की बात में उसको चगा कर दूगा!श्रीज ही तुम लोग मेरे साथ चलो,जिसमें कल तिलिस्म टूटने में हाथ लग जाय,नहीं तो साल भर फिर मौका न मिलेगा।

इन्द्र०।बावाजी, शअसल तो यह है कि मैं अपने भाई की बढ़ती नहीं चाहता,मुझे यह मजूर नहीं कि मेरे साथ उसका भी नाम हो।

वावा॰।नहीं नहीं,तुम्हें ऐसा न सोचना चाहिए,दुनिया में भाई से बढ़ के कोई रन नहीं है।

इन्द्र०।जी हाँ,दुनिया में भाई से बढ़ के रन नहो तो भाई से बढ़ के कोई दुश्मन भी नहीं,यह बात मेरे दिल में ऐसी वैठ गई है कि उसके हटाने के लिए ब्रह्मा भी कर समझा बुझा तो भी कुछ नतीजा न निकलेगा।

बाबा०।विना उसको साथ लिए तुम तिलिस्म नहीं तोड़ सकते।

इन्द्र०!( हाथ जोड़ कर ) बस तों जाने दीजिए,माफ कीजिए,मुझे तिलिस्म तोडने की जरूरत नहीं!

वावा॰। क्या तुम्हें इतनी जिद्द है?

इन्द्र०।में कह जो चुकी कि ब्रह्मा भी मेरी राय पलट नहीं सकते।

वावा०।खैर तुम्हीं चलो,मगर इसी वक्त चलना होगा।

इन्द्र०।हाँ हाँ,मैं तैयार है,अभी चलिए ।