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चन्द्रकान्ता सन्तति
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चन्द्रकान्ता सन्तति माधवी० 1 ( तिलोत्तमा के पैरों पर गिर कर और रो कर ) ऐसा न कहो, अगर मुझ पर तुम्हारे सुधा प्रेम है तो ऐसा करने के लिए जिद्द न करो, अगर मै मिर चाहो तो काट लो मगर इन्द्रजीतसिंह को छोडने के लिए मत कहो ।। | तिलो० | अफसोस कि इन वार्तो की खबर दीवान साहब को भी नहीं कर सकती, बड़ी मुश्किल है, अच्छा मैं उद्योग करती हूं मगर निश्चय नहीं कह सकती कि क्या होगा ।। माधवी० 1 तुम चाहोगी तो सब काम हो जाय । तिलो० । पहिले तो मुझे ललि 17 को छुडाना मुनासिब है । माधवी० ] अवश्य ।। तिलो० । हाँ एक काम इसके भी पहिले करना चाहिये नहीं है। किशोरी दो ही एक दिन में यहाँ से गायब हो जायेगी और ताज्जुब नहीं कि धडधड़ाते हुए वीरेन्द्र सिंह के कई ऐयार यहा पहुच जाय और मनमानी लूट मचावें । माधी | शायद तुम्हाई मतलवे उस पानी वाली सुर को बन्द कर देने से हो ? तिलौ• } हा ।। माधव० { में भी यही मुनामि समझती । मैं सोचती हूं कि जहर कोई ऐयार उस रोज उर्स! पानी वाली सुरग की राह से यही या यह जिराक देता देती इन्द्रजीतसिंह उस सुरग में घुसे थे, मगर बेचारे पानी में भागे न जा सके और लौट आये । तुम जरूर उस सुर श फौ अच्छी तरह बन्द कर दी जिसमें कई ऐयार उस राह से ऋाने जाने न थे । तुम लोगों के लिए वह रोती हुई है जिधर से मैं ती जाती हैं। इ। एक बात श्रीर है, तुम अपने पिता को मेरी मदद के लिए क्यों नहीं ले 'प्रातर, उनले श्रीर मेरे पिता से तो वदो दोस्त यो नगर अफसोस, मान ल । दुर्भसे बदृत ग्३ ।।