पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/१२२

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तीसरा हिस्सा
 

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तीसरा हिस्सा | थी । यायिक वह उठ चैट और धीरे से अपि ही आप बोली, “श्रयं मुझे खुद कुछ करना चाहिए । इस तरह पड़े रहने से काम नहीं चलता । मगर अफसर, मैरे पनि कोई इर्स भी तो नहीं है । किशोरी पलंग के नीचे उतरी श्रर कमरे में इधर उधर टहलने लगी थपिर कमरे के याहर निकली । देखा कि पार लीडिया गहरी नींद में सो रही हैं । श्राधी रात से ज्यादे जा चुकी थी, चारो तरफ अंधे। छाया हुआ था । धीरे धीरे कदम बढ़ाती हुई कुन्दन के मकान की तरफ बढ़ी | जर पास पहुंची तो देखा कि एक आदमी काले कपड़े पहिने उसी तरफ लपका हुश्री जा रहा है बल्कि उम कमरे के दालन में , पच गया जिसमें कुन्दन रहती है। किशोरी एक पेड़ की शाई में रही। हो गई, शायद इसलिए कि वह अादमी लौट कर चला जाये तो अरे बइ ।। थोड़ी देर बाद कुन्दन भी उसी 'प्रादमी के साथ बाहर निकली और धीरे धीरे चारा के उस तरफ रवाना हुई जिधर घने दरख्त लगे हुए थे । जुत्र दोनों उस पेड़ के पास पत्रे जिम की आड़ में किशोरी छिपी हुई थी तब वह गदग का ग्रौर धारे से बोला : अदिमी० { शव तुम जाम्रो, ज्यादै दूर तक पहुँचाने की फोई जरूरत नहीं । कुन्दन० । फिर भी मैं फट् देती हैं कि शत्र पाच सात दिन ‘नारंग। की चोई जरूरत नहीं । झदिमी ! खैर, मगर किशोर पर दया बनाये रहना ! बुन्दनः । इस कड़ने की कोई जरूरत नहीं । वह यादमी पे के झुएट की तरफ चला गया और कुन्दन लट और अपने न मरे में चली गई । किशोरी गी फिर बहा न ददरी और अपने फ़गरे कर पल पर लेट हो क्योंकि उन दोनों की बातों ने जिने किशोर में अच्छी तरह सुना था उसे परेशान कर दिया और वह