पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/१२३

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चन्द्रकान्ता सन्तति सरह तरह की बातें सोचने लगी, मगर अपने दिल का काल किससे कहे ? इस लायक वहां कोई भी न था । पहिले तो किशोरी बनिस्बत कुन्दन के लाल को सच्ची और नेक समझती थी पर अब वह वात न रही ! किशोर उस आदमी के मुह से निकली हुई उस बात को फिर याद करने लगी कि किशोरी पर दया यनाए रहना !" वह आदमी कौन था ? इस बाग में श्रीना और यहां से निकलकर स्वाना तो बडा ही मुश्किल है, फिर वह क्योंकर श्राया ! उस आदमी की श्राधाज्ञ पहिचानी हुई सी मालूम होती है, वेशक मैं उससे कई दफे बातें फर चुकी हूँ मगर कब शौर कहा सो याद नहीं पड़ता और न उसकी सूरत का ध्यान उधता है । कुन्दन ने कहा था, पाच सात दिन तक नारी की कोई जरूरत नहीं ।” इससे मालूम होता है कि वह नारंगी वाली बात कुछ उस आदमी से सम्पन्ध रखती है और लालं? उम भेद को जानता है । इस समय तो यही जान पता है कि कुन्दन मेरी खैरखा है। र लानी मुझसे दुश्मनी किया चाहती हैं, मगर इसका भी विश्वास नहीं होता । कुछ भेद खुला मगर इसमें तो और भी उलझन हो गई खेर कोशिश की तो कुछ और भी पता लगेगा मगर झवझी लाली का हाल मालूम करना चाहिए। थोड़ी देर तक इन सब बातों को किशोरी सोचती रही, यासिर फिर अपने पलग से उठो और कमरे के बाहर भाई ! उसकी हिफाजत करने वाली लंटिया उसी तरह गहरी नींद में सो रही थी 1 जरा रुक कर बाग के उस कोने यी तरफ वही जिधर लाल का मकान था । पैरों की थाइ

  • ऋपने पो छिपाती और रुक रुक कर चारो तरफ की आहट लेता हुई

चली जाती थी, जब लाली के मकान के पास पहुंची तो धीरे धीरे किसी की बातचीत की ग्रा पा एक अर की कड़ी में सऊ रहो और कान ग; वर सुनने लगी, उन इतना ही सुना, बेफिक्त रहिए, जम