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चन्द्रकान्ता सन्तति
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चन्द्रकान्ता सन्तति किशोरी० ! अफसोस, इतनी मैइरानी रहने पर भी तुम वह भेद | मुझसे नहीं कहती है । लाली० 1 घडाम्रो मत, धीरे धीरे सब कुछ मालूम हो जायगा । | इसके बाद लाली ने दबी जुबान से किशोरी को कुछ समझाया | प्रौर दो घण्टे मैं फिर मिलने का वादा करके वहाँ से चली गई । ग्यारहवां बयान | हम ऊपर कई दफे लिख अाए हैं कि उस बाग में जिसने किशोरी रहती थी एक तरफ एक ऐसी इमारत है जिसके दर्वाजे पर बराबर ताला बन्द रहता है और नंगी तलवार का पहर। पडा करता है। | अाधी रति का समय है। चारो तरफ अंधेरा छाया हुआ है । तेज हवा चलने के कारण बड़े बड़े पेड़ के पत्ते खड़खडा कर सन्नाटे को तोह रहे हैं । उसी समय हाथ में कमन्द लिए हुए लाली अपने को हर तरह से बचाता श्रौर चारो तरफ गौर से देखती हुई उसी मकान के पिछवाड़े फी तरफ से जा रही है। अब दिवार के पास पहुँची फमन्द लगा कर छत के ऊपर चढ़ गई ! छत के ऊपर चारो तरफ तीन तीन हाथ ऊँची दीवार थी ! लाली ने बटी होशियारी से छत फोड कर एक इतना बदी सूराख किया जिसमें श्रादमी चरबी उतर जा सके और खुद कमन्द के सहारे उसके अन्दर उतर गई ।। दो घण्टे के बदि एक छोटी सी सन्दूकडी लिए हुए निकली शौर फमन्द के सहारे छत के नीचे उतर एक तरफ को रवाना हुई । पू व तरफ वाली चारदृटरी में शाई वही से महल में जाने का रास्ता था, फाटक के गन्दर घुम क्र महा में पची। यह महल बहूत बडा और अलीशान था, दो हो। यि र सपियों के साथ महारानी राव इल्ली में रहा करती | थी । ई टालान श्रीर दर्वाज फों पार करती हुई लाली ने एक कोठरी के दबाजे पर पन कर धीरे से कुश पश्य या ।