पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/१३२

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तीसरा हिस्सा विछी हुई थी उसके बगल में एक कोटी नहाने की थी जिमकी जमीन सुफेद यो स्याह पत्थरों में बनी हुई थी 1 बीच में एक छोटा सा हज यना हुआ था जिसमें एक तरफ से तालाब का जल श्रीता का गौर दूगई। तरफ से निकल जाता था, इसके अलावे शेर भी तन चार कोठदिया जरूरी कामों के लिए मौजूद 4 शरार उस मकान में सिवाय इस एक थ्रौरत के और कोई दूसरी श्रेरित ३ थी न कोई नौकर या मजदूरनी ही नजर आती यो। उस मकान को देख र उम३ भिवाय उस नौजवान नाजनीन के Jौर किसी को न पा, कुमार को बड़ा ही तात्र हुआ । नह मकान इन योग्य था कि बिना पाच चार आदमियों के मकां पाई :या वहा के सामान की दुरुस्ती हो नहीं सकती थी । घॐ गई और धूप ए ए कुझर इन्द्रजीतसिंह को यह जगह बहुत हो भनी मालम हुई और उस इन शरत के अनःकिक रूप को छटा में थे ऐसे हित हुए कि, पाने की धुन विनाकुल हो जानी र । बड़े नाज श्रीर अन्दाज से उस औरत ने कुमार को,कमरे में ले जाकर गद्दी पर चैटाया और श्राप उनके सामने बैठ गई । कुमार | तुमने जो कु रान मुझ पर किया में किसी तरह उनका वदनी नहीं चुका सका ।। "प्रौश्न० । ठीक है मगर में उम्मीद करती हैं कि श्राप कोई काम ऐसा भी न करेंगे जो मेरी बदनामी का मन्त्र हो । कुमार० । नहीं नहीं, मुझमे ऐसी उम्मीद कभी न करना, लेकिन का सच है जो तुमने ऐसा फदा है। रत० । म मन में कहा मैं अकेली रहती है प्रापका इस तरह माना जर देर तक रहना बेशक देर बदनामी का सश्य होगा । ६ रि० 1 ( कुछ सोच पर ) नुन इतनी म्यूबसूरत क्यों हुई’ ! अफ सोम, तुम्हारी एक एप अदा मुझे अपनी तरफ सेंचती हैं ! ( कुछ