पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/१४

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पहिला हिस्सा
 

पेयार ही निकले,जो सोचा था वही हु।खैर या हर्च है, इन्द्रचीतसिंह को गिरफार कर लेना जरा टेढ़ी खीर है।।

शिवदत्त॰।(पास पहुँच कर)मेरा श्राधा कलेजा तो ठण्डा हुआसंगर अफसोस तुम दोनों भाई हाधे न आएँ।

इन्द्रजीत।जी इस भरोसे न रहिएगा कि इन्द्रजीतसिंह को फँसा लिया, उनकी तरफ बुरा निगाह से देखना भी काम रखता है!

ग्रन्थकर्ता०।भला इसमें भी कोई शक है!!

दूसरा बयान।

।इस जगह पर थोडा सा हाल महाराज शिवदत्त की भी बयान करना मुनासिब मालूम होता है।महाराज शिवदत्ते को हर तरह से कु अर रेन्द्रसिंह के मुकाले में हार मानना पटी।लाचार उस शहर छोड़ दियाऔरअपने कई पुन खैखाह को साथ ल चुनार के दक्खिने का तरफ रवाना हूं।

चुनार से थोड़े ही दूर दक्खन लम्बा चौडा घना जगल है। यह विन्ध्य के पहाड़ जंगल का सिलसिला राव सरोज सुगुजा श्रौर सिंगरोल होता दुःश्रा सैकड़ों की तक चला गया है जिसमें बड़े बड़े पहाड धटया दरें शीर खोह पाते हैं।बीच बीच में दो दो चार चार कोस क फासल पर गाँव भी अवाद है।वही कहा पहाड़ो पर पुराने जमान के टूटे फूटे अलीशान किले अभी तक दिखाई पड़ते हैं।चुनार से आठ केस दक्खन अहरौरा के पास पहाई पर पुरान जमाने के एक वदि किले का निशान व्याज भी देखने से चित्त का भाव बदल जाता हैं।गौर करने से मालूम होता है कि जब यह किला दुरुस्त होगा तो तीन कोख से ज्यादं लम्बी चौडी जमीन इसने घेरं होगी,खीर में यह किला काशी के मशहूर राजा चेतसिंह के अधिकार में थी। इन्ही जगलों में अपना रानी और कई खैरखाही को मय उनकी श्रीरतो और बाल बच्चो के साथ लिए