पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/१५०

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दूसरा हिस्सा
 

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दूसरा हिमा सुरंग के अन्दर कुछ दूर पर रोशनी मालूम हुई जिसे देख उन्हें ताज्जुब हुश्रा और बहुत धीरे धीरे ग्रासे बढ़ने लगे, जब उस रोशनी के पास पई ने एक औरत पर नजर पड़ी जो हथकडी अौर घेई के सबन उठने चैटने से बिल्कुल लाचार थी । चिराग की रोशनी में इन्द्रजीतसिंह ने उस औरत को और उसने इनफो अच्छी तरह देखा और दोनों ही चैक पई ।। ऊपर जिक अा जाने से पाठक समझ ही गए इंगे कि यह किशोरी हे जो तकलीफ के भवन बहुत ही कमजोर और मुफ्त हो रही थी । इन्द्रजीतसिंह के दिल में उसकी तस्वीर मौजूद थी अौर इन्द्रजीतसिंह उसकी ग्रॉखों में पुतली की तरह डेरा जमाये हुए थे । एक ने दूसरे को बखूबी पहिचान लिया थोर ताज्जुब मिली हुई खुरी के सपत्र देर तक एक दूसरे ॐ सूरत देखते रहे, इसके बाद इन्द्रजीत ने इसकी इथकटी ग्रौर बैटी खोल 'टलो श्री२ चई प्रेम से हाथ पकद्द कर कहा, किशोर, तु या ६ ई !” । फिशोरी० } { इन्द्रजीतसिंह के पैरों पर गिर कर ) अभी तक तो में यही सोचा था कि मेरी बदकिस्मती मुझे यह ले ाई मगर नई अन्न मुझे बहन पर कि मेरी खुशकिस्मती ने मुझे यहां पहुंचायाँ २ ललित ने मेरे साथ यो नैफ की जो मुझे कैद कर लाई, नही तो मालूम ने तक तुम्हारी सूरत,..... | इससे ज्यादा बारी किशोरी कुछ कह न सकी और जोर जोर से ने लगः । इन्द्रजीतसिंह भी बराबर रो रहे थे। शिविर उन्होने किशोरी पे उठाया और दोनों हाथों से उसकी कलाई पड़े हुए बोले :-- “य, मुझे कवे उम्मीद थी कि मैं तुम्हें बहा देगा ! मेरी जिन्दगी ; 'प्रान की खुशी याद ररने लायक होगी । कोख, दुश्मन ने तुम्हे हैं। इष्ट दिया ! | किशोरी । बस अब मुझे किसी तरडू को श्रारजू न है । मैं ईश्वर