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चन्द्रकान्ता सन्तति
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चन्द्रकान्ता सन्तति से यही मागती थी कि एक दिन तुम्हें अपने पास देख , सो मुराद् अाज पूरी हो गई, अब चाहे मघवो मुझे मार भी डाले तो मैं खुशी से मरने को तैयार हैं। | इन्द्र० | जब तक मेरे दम में दम हैं किसकी मजाल है जो तुम्हें दुःख दे, अब तो किसी तरह इस सुर्रा की तालो मेरे हाथ लग गई जिससे हम दोनों को निश्चय समझना चाहिये कि इस कैद से छुट्टी मिल गई । अगर जिन्दगी है तो मैं माधवी से समझ लुगा, वह जाती। इन दोनों को यकायक इस तरह के मिलपि से कितनी खुशी हुई यह वे ही जानते होंगे । दीन दुनिया की सुध भूल गये । यह याद ही नहीं रहा कि हम कहा जाने वाले ये, कहाँ हैं, क्या कर रहे हैं और क्या करना चाहिये, मगर यह खुशी बहुत ही थोड़ी देर के लिये थी, क्योंकि इसी समय हाथ में मोमबत्ती लिए एक औरत उसी तरफ से आती हुई दिखाई दी जिधर इन्द्रजीतसिंह जाने वाले थे और जिसको देख ये दोनों ही चौंक पड़े ।। वह औरत इन्द्रजीतसिंह के पास पहुंची और वदने का दाग दिखला वहुत जल्द जाहिर कर दिया कि यह चपला है । चपला० । इन्द्रजीत ! हैं तुम यह कैसे आये 11 ( चारो तरफ देख कर) मालूम होता है चेचारी किशोरी को तुमने इसी जगह पाया है ।। | इन्द्र० | हा यह इसी जगह कैद थी मगर मैं नहीं जानता था । में तो माधवी के हाथ से जबर्दस्ती ताली छीन इस मुरग में चला गया श्रीर उसे चिल्लाती ही छोर याया । चपला | माधवी तो अमी इस सुरंग को राइ वद्दा गई थी ।। इन्द्र० 1 ६, श्रीर में देवले के पास छिपा खडा था। जैसे ही वह ताला खोज अन्दर पहुंची वैसे ही मैने पकड़ लिया श्रीर ताली छोन इधर झा भीतर से ताला बन्द कर दिया ।