पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/१५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
चन्द्रकान्ता सन्तति
५६
 

________________

चन्द्रकान्ता सन्तति | ॐ ऐयारों ने पकड़ लिया है और अब किशोरी को अपने यहां रखने से किसी तरह जान न बचेगी, तिस पर भी वह किशोरी को छोडना नहीं चाहता था और सोचते विचारते जङ्ग उसका जी ठिकाने अति सब यही * कहता कि चाहे जो हो किशोरी को तो भी न छोड़ेगा !' किशोरी को अपने यहा रख कर सलामत रहने को सिवाय इसके उसे कोई तर्कीब न सूझी कि वह माधवी को मार डाले और स्वयं राजा बन बैठे 1 अस्विर इसी सलाह को उसने ठीक समझा श्रीर अपने घर से निकल माधवी से मिलने के लिए महल की तरफ रवाना हुआ, मगर वहा पहुच कर बिल्कुल बातें मामूल के खिलाफ देख और भी ताज्जुब में हो गया। | उसे उम्मीद थी कि खोह का दर्वाजा बन्द होगी भर नहीं, खोह का दवजा खुला हुआ था और माधवी की कुल सखिया जो खोह के अन्दर | रहती थीं, महल में ऊपर नीचे चारो तरफ फैली हुई थी जो रोती म्नौर इधर उधर माधवी को खोज रही थीं। रात अघी से ज्यादे तो जा हो चुकी थी, बाकी की रात भी दीवान साहब में मघवी की सस्त्रियों के इजहार लेने में बिता दी और दिन रात को पूरा अखण्ड व्रत किए है। देखना चाहिए इसका फल उन्हें क्त्रा मिलता है। शुरू से लेकर माधवी के भाग जाने तक का हाल उसकी सखियो। ने दीवान सहिच से कह सुनाया। आस्विर में कहा, “सुर की ताली माधवो अपने पास रखती थी इस लिए हम लोग लाचार थी, यह सब हाल अपसे कृद्द न सकी ।” अग्निदत्त दांत पीस कर रह गया, अाखिर यही निश्चय किया कि कन दशहरा ( विजयादशमी ) है, गद्दी पर खुद वैठ राजा बन और किशोरी को रानी बना नजरे लॅा, फिर जो होगा देखा जायेगा । सुबह को जब वह अपने घर पची और पलँग पर जाफरे लेना चाहा तो वैसे ही तपिये के पस एक तह किये हुए कागज पर उसकी नजर पडी । खोल मार देगा तो उसी की तस्वीर मालूम पड़ी, छाती पर चढ़ा हुआ एक