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चन्द्रकान्ता सन्तति
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चन्द्रकान्ता सन्तति रहने का है। हम लोग इस शहर में अपना दखल जमा चुके थे जब तुम यहाँ पहुँचाये गये ।। | यह सुन इन्द्रजीतसिंह चुप हो रहे और कुछ सोचने लगे, साथ ही इसके राजगृह में दीवान अग्निदत्त के साथ होने वाली लड़ाई का समा उनकी आखों के आगे घूमे गया और वे किशोरी को याद कर अफसोस करने लगे । इनके बेहोश होने के बाद क्या हुआ अौर किशोरी पर क्या बीती, इसके जानने के लिए जी ने वैन था मगर पिता का लेहाज फर भैरोसिंह से कुछ पूछ न सके सिर्फ ऊँची सास लेकर रह गए, मगर देवीसिंह उनके जी का भाव समझ गए और बिना पूछे हो कुछ कहने का मौका समझ कर बोले, “राजगृही में लड़ाई के समय जितने अादमी श्रापके साथ थे ईश्वर की कृपा से सभी बच गए श्रीर अपने अपने ठिकाने पर है, केवल श्रापही को इतना कष्ट भोगना पड़ा ।” देवीसिंह के इतना कहने से इन्द्रजीतसिंह व बेचैनी बिलकुल ही जाती तो नहीं रही मगर कुछ कम जरूर हो गई । इतने में दिल बहलाने का ठिकाना समझ कर देवीसिंह पुनः बोल उठे : देवी० । अर्योि वाली सदूक हाजिर है, उसके देखने का समय भी हो गया है। इन्द्र० कैसा सन्दूक ! अानन्द० । यहां महज़ के फाटक पर दो सन्दुक इसलिये रख दिये गये है कि जो लोग दवर में हाजिर होकर अपनी दुःख सुख न कह सकें। लोग अरजी लिख कर इन सन्दूकों में डाल दिया करें ! | इन्द्र० । बहुत मुनासिब, इभमे ३यतों के दिल का हाल अच्छी तरह मालूम हो सकता है । इस तरह के कई मन्दूक शहर में इधर उधर भी र देना चाहिए कि बहुत से श्राइमई ग्यौफ से फाटक तक आते भी हिचकेंगे । 'प्रानन्द | बहुत मूत्र, फल इसका भी इन्तजाम हो जायगा ।।