पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/१६८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
६५
दूसरा हिस्सा
 

________________

दूसरा स्सिा , कोठटी का दबजा धीरे धीरे खुनने लगा | तारासिंह ने लकड़ी के इशारे से भैरोसिंह को उठा दियः जो नदी मेंशियारी से घूम कर कोई की तरप देखने लगे । कोठी के दवजे का एक पल्लर अर्थ अच्छी तरह खुन गया और एक निहायत हसीन श्रीर कमसिन औरत किया पर दृथि रखें खही दोनों मसरियों की तरफ देखती नजर परी । भैरोसिंह और तारासिंह ने मसकरी के पावे पर पैर की इशारा देकर दोनों भाइयों को भी जगा दिया । इन्द्रजीतसिंह का रुख तो पहले ही उस कोटड़ी की तरफ था मn शानन्दसिंह उस तरफ पीठ किये सो रहे थे | अब उनकी श्राखें खुली तो अपने सामने की तरफ जहां तक देख सकते थे कुछ भी न देउ, लाचार धीरे से उनको फरवट बदलनी पड़ी और तय मालूम हुआ कि इस कमरे ॐ ह्या अभिर्य की बात दिखाई दे रही है। अय कोठी के दोनों पल्ला खुल गया और वह हसीन श्रीरत सिर से पैर तक अच्छी तरह इन चारों को दिखाई देने लगी कि उसके तमाम बदन पर इग्नूबी रोशनी पढ़ रही थी । वह औरत नेवि से ऐसी दुरुन्त थी कि उसकी तरफ चारों की टकटकी बैध ई । बेशकीमत सुफेद साड़ी और जाऊ जेवरों से वह बहुत ही भली मादम रद्दी थी । जेवरों में सिर्फ खुशरंग मानिक जड़ा हुआ था जिसकी सुश्व उम* गोरे २६ पर पट्ट कर उसके हुस्न का हद्द से याद रौनक दे रही थी । उसके पेशानी ( माथे ) पर एक दाग ५: जिसके देखने से विश्वास होता है। कि बेशक इसने कभी तयार या किसी इ की चोट पाई है। यह दो श्गुल का दाग भी उसकी खूबसूरती को बढ़ाने के लिए जेवर ही हो रहा था । उसे देख ३ चा अदमी यही सोचते होंगे कि इससे ६३ कर रूबसूरत : सौर उर्वशी अप्सर भी न होगी ! ॐ श्रर इन्द्रजीतसिंह तो फिश पर मोहित हो रहे थे, उमझी तस्वीर इनके दिल में पिच रद्द भी, उन पर चाहे इसके इस्न में ज्यादै असर न किया है। मगर अानन्द्रसिंह