पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/१७०

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दूसरा हिस्सा
 

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दूसरा हिस्सा | सारी मुश्किले तो कुछ भी नहीं, ( इन्द्रजीतसिंह की तरफ देख फर) क्या हुक्ष्म होता है ? | इन्द्र० । न उस कोठडी में दूसरी तरफ निकल जाने का इस्तः ही नहीं है तो जल्दी क्यों करते हैं। १ । इन्द्रजीतसिंह के इतना कहते ही ग्रानन्दसिंह वहा से हटे और अपने भाई के पास आ कर बैठ गए । भैरोसिंह और तारासिंह भी उनके पास कर चैठ गए और यो बातचीत होने लगी :--- इन्द्रजीत । ( भैरोसिंह अौर तारासिंह की तरफ देख कर ) नुपर्ने से फोई जागता भी रहा या दोनों सो गए थे ? । भैरो० । नहीं सो क्या नावे १ इम लोग बारी बारी से बराबर जगते और महान चादर से मुंह दौपे दर्याज की तरफ देखते रहे । इन्द्र० । तो क्या इस वजे में से भूस श्रीरत को आते देता था ? "प्रानन्द । शक इस तरह के माई होगी । तारा० । क्षी नहीं, यही हो। ताज्जुर है कि कमरे के दर्याने इयों के यों भिड़े रह गए और यकायक कोठड़ो का दर्वाजा बुना श्रीर देह नजर आई। न्द्र० } यह तो अच्छी तरह मालूम है न कि उस फोटटी ३ र कोई दवना नहीं है । भैरो० । जी हैं। अच्छी तरह जानते हैं, और कोई दवा नई है । त० | क्या कहें, कोई सुने तो यही कहे कि चुदै यी } आनन्द | राम राम, यई भी कोई बात है !! इन्द्र० । और जो हो, मेरी राय तो यह है कि पिताजी के ने तक फोट ६ इज न पोन! जाय । ग्रानन्द | को हुक्म, मगर में तो यह चाहता था कि पिता जी के "ग्रीने तक दवा खोल कर सब कुछ दरियाप्त पर लिया जाता । इन्द्र० । र खन्न ।।