पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/१७३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
चन्द्रकान्ता सन्तति
७०
 

________________

স্বল্কান্না শুনি लडके, भैरोसिंह, तारासिंह, और कई सदर लोग नैठे हैं। इन्द्रजीतसिंह की तबीयत अब वहुत अच्छी है और वे चलने फिरने लायक हो गये हैं देवीसिंह को बहुत जल्द लौट आते देख कर सभी को विश्वास हो गया कि वे जिस काम पर मुस्तैद किये गए थे उसे कर चुके मगर ताज्जुब इस बात का था कि वे अकेले क्य अाए । चो२० । कह देवीसिंह खुश तो हौ । देवी० { खुशी तो मेरी खरीदी हुई है !( और लोगों की तरफ देख कर ) अच्छा अब आप लोग जाइये, बहुत विलम्ब हो गया है। दरबारियों और खुशमिदियों के चले जाने बाद बीरेन्द्र सिंह ने देवीसिंह से पूछा :| बीरे० ] कहो उस अर्जी में जो कुछ लिखा था सच या या झुठ १ । देवी० | उसमैं जो लिखा था बहुत ठीक था । ईश्वर की कृपा से शीघ्र ही उन दुर्यों का पता लग गया, मगर क्या कहूँ ऐसी ऐसी ताज्जुब की वाते देखने में आई कि अभी तक बुद्धि चकरा रही है । | बी२० [( हैंस कर ) उधर तुम ताज्जुब की या देखो इधर हम लोग अद्भुत बातें देखें । देवी० । सो क्यः १ बी२० । पहिले तुम अपना हाल कह लो तो यहाँ की लुनना ।। देवी० । बहुत अच्छा, फिर सुनिए | रामशिला को पहाड़ी के नीचे मने एक काग अपने हाथ से लिख कर चपका दिया जिसमें यह लिजा था : | हम सूय जानते हैं कि जो ग्रग्निदत्त के विरुद्ध होता है उसका तुम लोग सिर काट लेते हैं और जिसका घर चाहते हो लूट लेते हैं। मैं द फी चोट से करता हूँ कि अग्निदत्त का दुश्मन मुझसे बढ़ के कोई न दोग धौर गयानी हैं मुझसे बढ़ कर मालदार भी कोई नहीं है, तिस