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चन्द्रकान्ता सन्तति
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चन्द्रकान्ता सन्तति मैं जिस औरत क्की झलक देखी थी वह मी मानि के जड़ाऊ शैवरों से ही अपने को सजाये हुए थी । आखिर आनन्दसिंह से न रहा गया, देवीसिंह को बात कहते कहते रोक कर पूछा :-- श्रीनन्द } उस अोरत की नवसिख कुरा अच्छी तरह कह जाइये । देवी० । सो फ्या १ बारे० । ( लडकों की तरफ देख कर ) तुम लौ को ताज्जुब विस बात का है १ तुम लोगों के चेहरे पर हैरानी क्यों छी गई है १ । भैरो० । जी वह औरत भी जिसे इम लोगों ने देखा था ऐसे ही गहने पहिरै हुए थी जैसा चचाजीक कह रहे हैं। वीरेन्द्र० ! इ । भैरो० | जी हाँ । देव ० ! तुम लोगों ने कैसी औरत देखी थी ? वीरेन्द्र० । सो पीछे सुनना, पहिले से ये पूछते हैं उसका जवाब दे लौ } देवी० । भखसिख सुन के क्या कीजियेगा, सब से ध्यादे पक्का निशान तो यह है कि उसके ललाट में दो ढाई अगुल का एक श हा दाग है, मालुम होता है शायद उसने कभी तलवार की चोट खाई है । श्रीनन्द० | वस धस यस } इन्द्रजीत० । बेशक चही शौरव है ! तारा० } इसमें कोई शक नहीं कि वही है ! भैर० ! अवश्य वही है ! यीरेन्द्र० } मगर धर्य है, कहाँ उन दुधों का ग श्रीर का इस लोगों के साथ शापुम का बर्ताव ! । मैरोसिंह और देवी का रिश्ता तो मामी भांजे की थी मगर भैरोसिंह उन्हें चाचानी अदा करते थे।