पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/१८

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पहिला हिस्सा
 

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पहिला हिस्सा दीवारों में टक्कर मार रही है, अस्त होते हुए सूर्य की लालिमा जेल में पड़ कर लहरों को शाभा दूनी बढ़ा रही है, सन्नाटे का आलम है, इस चारदरी में सिवाय इन दोनों भाइयों के अौर कोई तीसरा दिखाई नहीं देता } इन्द्र० | अभी जल कुछ और बढ़ेगा । अानन्द० । जी हाँ, पारसाल तो गगा आज से कहीं ज्यादे बढी हुई यी जय दादाजी ने हम लोगों को तर केर पार जाने के लिए कहा था । | इन्द्र० { उस दिन भी खून ही दिल्लगी हुई, भैरोसिंर सभों में तेज रहा, बद्रीनाथ ने कितना ही चाहा कि उनके आगे निकल जायें मगर न हो सका। अनिन्द० । हम दोनो भी कास भर तक उस किश्ती के साथ ही साथ राएं जो हम लोगों की हिफाजत के लिए लग गई थी। इन्द्र० ! बम वही तो हम लोगो का शाखिरी इन्तिहीन रहा, फिर तव से जल में तेरने की नौबत ही कहाँ थाई ।। आनन्द० । कल तो मन दादाजी से कहा था कि आज कल गंगाजी खून बढ़ी हुई है तरने को जी चाहता है । इन्द्र० | तव क्या बोले ? | अनिन्द० । कहने लगे कि बस अब तुम लोगों का तेरना मुनासिब नहीं है, हँसी गो । तेरना भी एक इल्म है जिसमे तुम लोग होशियार हो चुके, अब क्या जरूरत है ? ऐसी है। जी चाहे तो किश्ती पर सवार हो कर जाग्रो सैर करो ।। इन्द्र० । उन्होंने वहुत ठीक कहा, चलो किश्ती पर थोडी दृर घूम श्रायें, इसके लिए इजाजत लेने की भी कोई जरूरत नहीं । बात चीत हो ही रही थी कि चोवदार ने आकर अर्ज किया, “एक * बहुत बूढ़ा जवहरी हाजिर है, दर्शन किया चाहती हैं ।” आनन्द० । यह कौन सा वक्त है ? चोपदार० । ( हाथ जोड़ कर ) तावेदार ने तो चाहा था कि इस