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चन्द्रकान्ता सन्तति
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चन्द्रकान्त सन्तति 77 मय उस जगल की अन्धेरी और वहा के सन्नाटे की आलम भूले भटके मुसाफिरों को मौत का समाचार देता था और वहा की जमीन के ने अमावन्या और पूर्णिमा की रात एक समान थी। किने के दा हुने तरफ वाले जगल में आधी रात के समय हम तन 7 दमयो को जो र हि चेंगे और नकायों से अपने को छिपाए दृए में घूमने 7 देव गई हैं। न मालूम ये किसकी खोज श्रीर किसे जमीन की तलाश मन हो रहे हैं 1 टनने में एक कुअर अानन्दसिंह दूमरे भैरोसिंह और न.मरे तारा । ये त अादमी देर तक घूमने के बाद एक छोट। स नारद वारी के पास पहुंचे जिसके चारो तरफ का दंवर पाच हाथ से यादे ऊर्च न यो और वहा के ऐड भी कम घन शोर गुंजान थे, केही दहा नन्द्रमा की रोशनी भ, अमान पर पड़ रही थी । शानन्द । शायद यही चारदीवारी है । भैरो० । बेशक यही है, देखिये फाटक पर इलियों का देर लगा हुआ है । तारा० । खैर भीतर चलिये, दखा जायगा ।। भैरो० । चरा ठहरिए, पत्तों क, खडखडाट से मालूम होता है कि कई शादमी इसी तरफ ग्रा रहा है। | शान-३ } { कोन ला कर } हो ठीक तो हैं, हम लोगों को जग छिप कर देखना चाहिए कि वह कौन हैं और इधर क्र्यों आता है। उस ग्राने वाले की तरफ ध्यान लगाए हुए तीनों आदमी पैड़ी की या में छिप रहे र थोदु है। देर में मुफेद कपड़े पहरे एक औरत को अते हुए उन लेगों ने देखा ! वह अारत पहले तो फरक पर रुक, तर कान लगा कर चारों तरफ की झाट लेने वाद फाटक के अन्दर घुस दं । भैरोहि ने आनन्दसिंह से कहा, 'श्राप दान इसी जगह् उदिए, में उस शौरत के पंछे जा कर देता हूँ कि चद्द कही जाता है। इस बात को दोनों ने मजूर क्रिया और भैरोसिंह छिपते हुए उस श्रीदत के पीछे राना हुए।