पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/१९३

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चन्द्रकान्ता सन्तति
 

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चन्द्रकान्ता सन्तति उसके पास ही छोटी सी पत्थर की चौकी पर साफ और हलकी पौशाक पहिरे एक बुट्टा बैठा हुआ छुरे से कोई चीज काट रहा था, इसका मुँह उसी तरफ था जिधर लाली और किशोरी खड़ी देहा की कैफियत देख रही थीं। उस बूढे के सामने भी एक चिराग जल रहा था जिससे उसकी सूरत साफ साफ मालूम होती थी। उस बुड्ढे की उम्र लगभग सत्तर वर्ष के होगी, उसकी सुफेद दाढ़ी नाभी तक पहुँचती थी और दाढी तथा मूछों ने उसके चेहरे का ज्यादा हिस्सा छिपा रखा था ।। | उस दालान की ऐसी अवस्था देख कर किशोरी और लाली दोनों हिचकी शीर उन्होंने चाहा कि पीछे की तरफ मुड चलें मगर पीछे फिर कर कहाँ जायें इस विचार ने उनके पैर उसी जगह जमा दिये । उन दोनों के पैरों की आहट उस बुड्ढे ने भी पाई, सर उठा कर उन दोनों की तरफ देखा और कहा---“वाह वाह, लाल और किशोरी भी आ गई ! आग्रो आओ, मैं बहुत देर से राह देख रहा था ।” दूसरा बयान कञ्चनसिंह के मारे जाने और कुअर इन्द्रजीतसिंह के गायब हो जाने से लश्कर में बड़ी हलचल मच गई। पता लगाने के लिए चारो तरफ जासूस भेजे गये । ऐयार लोग भी इधर उधर फैल गये और फसाद मिटाने के लिये दिलोजान से कोशिश करने लगे । राजा वीरेन्द्र सिंह से इजाजत ले कर तेजसिंह भी रवाना हुए और भेष बदल कर रोतासगढ़ किले के अन्दर चले गये। फिले के सदर दवजे पर पहरे का पूरा इन्तजाम था मगर तेजसिंह की फकीरी सूरत पर किसी ने शक न किया । साधू की सूरत बने हुए तेजसिंह सात दिन तक रोहतासगढ़ किले के ६ गुन्दर घूमते रहे। इस बीच में उन्होंने हर एक मोहल्ला, बाजार, गली, रास्ता, देवल, धर्मशाला इत्यादि को अच्छी तरह देख श्रीर समझ लिया, कई बार दर में भी जा कर राजा दिग्विजयसिंह और उनके दीवान