पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/१९६

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चौथा हिस्सा
 

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चौथा दिला यहाँ वाले ‘अ’ का करते थे। चिराग जलने के बाट इ से गंजेडी लोग व जमा होते जिन्हें श्रद्धे का मालिक गाँजा घना बना कर पिलाता और उसके एवज में पैसे वसूल करता ! वहाँ तन्ह तरह की गर्थे उड़ा करती थीं जिनने शहर भर का हाल झूठ सच मिला जुला लोगों को मालुम हो जाया करता था। शाम होने के पहले ही तेजसिंह जंगल से लौटे, लदारों के साथ साथ चैरागी के भेष में किले के अन्दर दाजिल हुए, और सीधै अई पर चले गये जहाँ गंञी लोग दम पर दम लगा कर धुएँ फा गुल्वार बांध रहे थे। यहाँ तेजसिंह का बहुत कुछ काम निकला और उन्हें मालूम हो गया कि महाराज के यहाँ केवल दो ऐयार हैं, एक का नाम गमानन्द दूसरे का नाम गोविन्दसिंह है। गोविन्दसिंह तो कुअर फायसिंह को छुड़ाने के लिये चुनार गया हुया है बाकी रामानन्द यहाँ मौजूद है। दूसरे दिन तेजसिंह ने दरबार में जाकर रामानन्द को अच्छी तरह देख लिया प्रौर निश्चय कर लिया कि आज रात को इसी के साथ ऐयारी फरेंगे, क्योंकि रामानन्द झा दाँचा तेजसिंह से बहुत कुछ मिलता था और यह भी जाना गया था कि महाराज राव से ज्यादा रामानन्द को मानते श्रीर अपना विश्वासपात्र समझते हैं ।। प्राधी रात के समय तेजसिंह सन्नाटा देख रामानन्द के मकान में मन्द लगा कर बढ़ गये । देखा कि धूर ऊपर वाले बैंगले में रामानन्द मतरी के ऊपर पड़ा खुर्राटे ले रट्टा है, देवान पर पर्दे । जगद् एक जाल लटक रहा है जिसमें छोटी छोटी घंटियाँ बंधी हुई हैं। परिले तो तेजर्सि ने उसे एक मानली पर्दा उम्मका मगर ये तो बड़े । चालक श्रीर, होशियार , पाप पर्दे पर राय लिना मुनारिच न उमझ कर, उसे गौर से देने लगे । जन मालूम हुआ कि नालायक ने इस जालटार पर्दे में बहुत सी घटियाँ लदा रक्शी हैं, तो समझ गये कि यह बेदी री

  • है, उमझता है कि इन घंटियों के लटाने से इम चे रहेंगे, इरी