पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/१९७

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चन्द्रकान्ता सन्तति
 

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चन्द्रकान्त सन्तति धर में जब कोई पर्दा हटा कर आवेगा तो घटियों की आवाज से हमारी अाँख खुल जायगी, मगर यह नहीं समझता कि ऐयार लोग चुरे होते हैं । तेजसिंह ने अपने बटुए में से कैंची निकाली और बहुत सम्हाल कर । पर्दे में से एक एक कर के धटी काटने लगे। थोड़ी ही देर में सब घटियों ५ फो काट किनारे कर दिया और पर्दा हटा अन्दर चले गये । रामानन्द अभी तक खुर्राटे ले रहा था । तेजसिंह ने बेहोशी की दवा उसके नाक के आगे की, हुलका धूरी सास लेते ही दिमाग में चढ़ गया, रामानन्द को एक छींक आई जिससे मालूम हुआ कि अब बेहोशी इसे घर तक होश में न आने देगी । | तेजसिँह ने बटुए में से एक उस्तरा निकाल कर रामानन्द की दाढी ओर मूछ मृड़ ली और उसके बाल हिफाजत से अपने बटुए में रख कर उसी ररी की दूसरी दाढ़ी और मूंछ उसे लगा दी जो उन्होंने दिन ही को किले के बाहर जगल में तैयार की थी । बस तेजसिंह इतने ही काम के लिये रामानन्द के मकान पर गए थे और इसे पूरा कर कमन्द के सहारे नीचे उतर आये तथा धर्मशाला की तरफ रवाना हुए। | तेजसिंह जब वैरागी साधू के भेष में रोहतासगढ़ किले के अन्दर आए थे तो उन्होंने धर्मशाला के पास एक बैठके वाले के मकान में छोटी सी कोटड़ी किराये पर ले ली थी और उसी में रह कर अपना काम करते थे। उम जोड़ी का एक दरवाजा सड़क की तरफ था जिसमें ताला लगा कर उसकी ताली वे अपने पास रचते थे, इसलिये उस कोठड़ी में जाने माने के लिये उनको दिन और रात एक समान था । रामानन्द के मकान में जब तेजसिंह अपना काम करके उतरे उसे वक्त पहर मर रात वाशी थी, धर्मशाला के पास अपनी कोठड़ी में गए झार मवेग होने के पहले ही अपनी सूरत रामानन्द की मी बना और गेहानगढ़ में एक ही धर्मशाला थी ।