पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/२०

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पहला हिस्सा
 

बैठ कर भोजन भी करना ही पडा़,हाँ शाम को इनकी बेचैनी बहुत बढ़ गई जब सुना कि तमाम शहर छान डालने पर भी उस जवहरी का कही पता न लगा और यह भी मालूम हुआ कि उस जवहरी ने यह बिल्कुल झूठ कहा था कि 'महाराज का दर्शन कर आया हूँ, अब कुमार के दर्शन हो जायँ तब आराम से सराय में डेरा डालू ।' वह वास्तव में महाराजा सुरेन्द्रसिंह और वीरेन्द्रसिंह से नहीं मिला था ।

तीसरे दिन इनको बहुत ही उदास देख आनन्दसिंह ने किश्ती पर सवार
होकर गद्गाजी को सेर करने और दिल बहलाने के लिए जिद्द की, लाचार उनकी बात माननी ही पड़ी ।

एक छोटी सी खूबसूरत और तेज जाने वाली किश्ती पर सवार हो इन्द्रजीतसिंह ने चाहा कि किसी को साथ न ले जायें सिर्फ दोनों भाई ही सवार हो और खे कर दरिया की सैर करें,। किसी की मजाल थी जो इनकी बात काटता, मगर एक पुराने खिदमतगार में जिसने कि बीरेन्द्रसिंह को गोद में खिलाया था और अब इन दोनों के साथ रहता था ऐसा करने से रोका और जब दोनों भाइयों ने न माना तो वह खुद किश्ती पर सवार हो गया । पुराना नौकर होने के ख्याल से दोनों भाई कुछ न बोले, लाचार साथ ले जाना पड़ा ।

आनन्द० । किश्ती को धारा में ले जाकर बहाव पर छोड़ दीजिए फिर से कर ले आवेगे ।

इन्द्र० । अच्छी बात है ।

सिर्फ दो घण्टे दिन बाकी था जब दोनों भाई किश्ती पर सवार हो दरिया की सैर करने को गए क्योंकि लौटती समय चॉदनी रात का भी आनंद लेना मंजूर था ।

चुनार से दो कोस पश्चिम गंगा के किनारे ही पर एक छोटा सा जंगल था । जब किश्ती के पास पहुंची, वसी की और साथ ही गाने की बारीक सुरीली आवाज इन लोगों के कानो में पड़ी । संगीत एक ऐसी