पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/२०६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
१७
चौथा हिस्सा
 

________________

चौरा हिमा इधर निराला पाकर तेसिंह ने एक दूसरी टित्रिया जैव से निकाली जिसमें लाल रंग की कोई बुझन भी, एक चुटकी रामानन्द के नाक में साँस के साथ चढ़ा दी और निश्चिन्त हो र बैठे, अब सिवाय तेजगिंद् के दूसरे का बनाया लखलखा उसे क्य होश में ला सता है, हाँ दो एक रोज तक पड़े रहने पर वह अप से आप चाहे भले हो होश में आ जाय । | दुभ भर में दारोगा साइन लपल की टिविया लिये ब्रा पहुंचे, तेजसिंह ने कहा, “बस श्राप ही घाइये और देरिये इस ललवे से कुछ काम निकलता है या नहीं ।” दारोगा शनि ने लालस की डिश्यिा नेरोश रामानन्द की नाक से लाई पर क्या असर होना था, लाचार तेजसिंह का मुंह देखने लगे । तेज० | क्या व्यर्थ भेट्नत करते हैं, में पहले ही कई नुन हूँ कि इस लाल से काम नहीं चलेगा । चलिये महाराज के पास चले, इसे यो १ हुने दीजिये, अपना लपलखा लेकर फिर लौटेंगे तो हम चलेगा। दागेगा । जैसी मर्जी, इ लखलने से तो काम नहीं चलता । दारोगा साहब ने रोजनामचे की किताब बगल में दो अंरि तालियों का का अंग्रेर लालटेन हय में लेकर रवाना हुए। एक मोठी में इस र दागा साट्न ने दूसरा दर्वाजा खोला, ऊपर चढ़ने के लिये सीदियाँ भर श्राः । ये दोनों पर चढ़ गये और दो तीन कोठरियों में घूमतें हुए एक सुरंग में पहुंचे । दूर तक चले जाने बाद इनका सर छत में ग्रदा ! दारोगा ने एक सूत्र में ताली लगाई और फोई खटका दबाया । एक पत्र का टुकड़ा अलग हो गया और ये दोनों बार निकले । याँ तेजसिंह ने अपने को एक कनिस्तान में शा ।। | इस सन्तति के तीसरे हिस्से के दौष्ट्रय वयान में हम इस रिस्तान का हल लि चुके हैं। इसी राह से है अर नन्दसिंह, भैरोसिंह अौर शारासिंह उस राह ने 2 गये थे। इस समय इम को हाल तिर रहे हैं य; र आनन्दसिंह दलाने में जाने के पीले मा है, निलमिला