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चन्द्रकान्ता सन्तति
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चन्द्रकान्ता सन्तति कर ताज्जुब कर रहे थे कि यकायक पीछे की कोठड़ी में खय्के की आवाज आई । वे घर्बरा कर उठ खड़े हुए और पीछे की तरफ देखने लगे । फिर आवाज आई । ज्योतिषी देवजा खोल कर अन्दर गये । मालूम हुआ कि उस कोठड़ी के दूसरे दवजेि से कोई भाग जाता है। कोठड़ी में विलकुल अंधेरा था, ज्योतिषी कुछ आगे बढे ही थे कि जमीन पर पड़ी हुई एक लाश उनके पैर में अड़ी जिसकी ठोकर खा वे गिर पड़े मगर फिर सम्हल कर आगे बढे, लेकिन ताज्जुब करते थे कि यह लाश किसकी है। मालूम होता है यहाँ कोई खून हुआ है, और ताज्जुत्र नहीं कि वह भागने वाला ही खूनी हो !! वह आदमी आगे श्रागे सुरङ्ग में भागा जाता था और पीछे पीछे ज्योति'पीजी हाथ में खजर लिये दौड़े जा रहे थे मगर उसे किसी तरह पकड़ न सके । यकायक सुरङ्ग के मुहाने पर रोशनी मालूम हुई । ज्योतिपीजी समझे कि अब वह बाहर निकल गया । दम भर में ये भी वहाँ पहुँचे और सुरङ्ग के बाहर निकल चारो तरफ देखने लगे । ज्योतिषीजी की पहिली निगाह जिस पर पड़ी वह पण्डित बद्रीनाथ थे, देखा कि एक शौरत को पकड़े हुए, बद्रीनाथ खड़े हैं और दिन अघिी घड़ी से कम बाकी हैं। बद्री० । दारोगा साव, देखिये आपके यहाँ चोर घुसे और आपको खबर मी न हो । | ज्यो० । अगर खरे न होती तो पीछे पीछे दौड़ा हुया यहाँ तक क्यों आता । | बद्री० । फिर भी आपके हाय से तो चोर निकले हो गया था, अगर इस समय हम न पहुँच जाते तो आप इसे न पा सकते । ज्यो० । हाँ बेशक इसे मैं मानता हैं। क्या आप पहिचानते है कि यद फौन है ? याद आता है कि इसे औरत को मैंने कभी देखा है।