पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/२२

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पहिला हिस्सा
 

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पहीली इसी पर सिर्फ एक ही शौरत गगा की तरफ रुर किए बैठी थी । ऐसा मालूम होता था मानों परिय साक्षात् किसी देवकन्या को झुना र ग वजा कर | इसलिए प्रसन्न कर रही है कि लुबरती बढ़ने और नौजवानी के स्थिर रहने का वरदान पावें । मगर नहीं, उनके भी दिल की दिल ही दे रही और कुँअर इन्द्रजीतसिंह तथा आनन्दसिंह को आते देख हिंडोले पर बैठी हुई नाजनीन को अकेली छोड़ न जाने क्यों भाग जाना ही पडा । शानन्द० । भैया, वह सब तो भाग गई ! इन्द्र० । हो, मैं इस हिंटोले के पास जाता हूँ, तुम देखो वे शौरतें किधर गई । अानन्द । दृत गच्छा ।। चाहे जो हो मगर कुअर इन्द्रजीतसिंह ने उसे पहिचान ही लिया | जो हिंडोले पर अकेली रह गई थी । भला यह क्यों न पहिचानते ? जवहरी की नजर दी हुई अंगटी पर उसकी तस्वीर देख चुके थे, उनके दिल में उसकी तस्वीर खुद गई थी, अत्र तर मु हमारी मुराद पाई, जिसके लिए अपने को मिटाना मंजूर था उसे विना परिश्रम पाया, फिर क्या चाहिए । ग्रानन्दसिंह पता लगाने के लिए उन ग्रेरितों के पीछे गए मगर वे ऐसी भागी कि झलक तक दिखाई न दी, लाचार आधे घंटे तक रान होकर फिर उसे हिंटोले के पास पहुचे ! हिंटले पर बैठी हु श्रेरित की कौन कहे अपने भाई को भी वहा ने पायी । वर्षा कर इधर उधर हुने और पुकारने लगे, चरा तक कि रात हो गर्ट और यह सोचकर क्रिती के पास पहुंचे कि शायद वह चले गए हों, लेकिन वह भी सिवाय उन चुढे | पिदमतगार के किसी दूसरे को न देता । जी बेचैन हो गया, ज़िदमतगार को सन्द हाल कह कर बोले, "ज तक अपने व्यारे भाई का पता ने लगा टूगा घर न जाऊंगा, तू जाकर यहां के हवाले की सभी को पयर कर दे ।” खिदमतगार नै र तरह से नन्दसिंह को समझाया बुझाया और घर चलने के लिए कहा मगर कुछ फायदा न निकला । लाचार उसने