पृष्ठ:चन्द्रकांता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री.pdf/२२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
चन्द्रकान्ता सन्तति
४२
 

________________

चन्द्रकान्ता सन्तति होशियार थी कि नानक पीछे से आकर धोखे में तलवार ने मारे, वह कृनखियों से पीछे की तरफ देखती जाती थी ।। थोड़ी दूर जाने के बाद वह औरत एक कैंप पर पहुंची जिस से संगीन चबूतरा एक पुरों से कम ऊँचा न था चारो तरफ ऊपर चढ़ने के लिये सीढिया बनी हुई थीं। कैं बहुत बड़ा और खूबसूरत था । वह औरत कुर पर चली गई शौर् वैठ कर धीरे धीरे कुछ गाने लगी । समय दोपहर का था, धूप खून निकली थी, मगर इस जगह कुएँ फै चारो तरफ घने पेड़ों की ऐसी छाया थी और ठढी दी हवी आ रही थी कि नानक की तनियत खुश हो गई, क्रोध रस और बदला लेने के ध्यान बिल्कुल ही जाता रहा, तिस पर उस औरत की सुरीली आवाज ने और भी रग जमाया । वह उस औरत के सामने लाकर बैठ गया और उसका मुंह देखने लगः । दो ही तीन तान लेकर वह औरत चुप हो गई और नानक से बोली :--- शौरत० | श्रव तू मेरे पीछे पीछे क्यों घूम रहा है। जहाँ तेरा जी चाहे जा और अपना काम कर व्यर्थ समय के नष्ट करता है ? अय तुझे तेरी रामभोली किसी तरह नहीं मिल सकती, उसका ध्यान अपने दिल से दूर पर दे। नानक० ! रामभोली झप मारे और मेरे पास श्रावेगी, वह मेरे कब्जे में है, उमय एक ऐसी चीज मेरे पास है जिसे वह जीते जी कभी नहीं छोड़ सकती । | "प्रीत० । हँस कर इसमें कोई शक नहीं कि तू पागल है, तेरी बातें सुनने से इसी श्रुती है, पैर तु जान तेरा काम जाने मुझे इससे क्या मतलब ! इतना मह र उस शौरत ने कुएं में फका और पुकार र कहा, कूपदेय, मु प्यास लगी है, जग पानी तो पिलाओ ।” श्रेरित की बात सुन कर नानक भमराया और जी में सोचने लगा कि