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चन्द्रकान्ता सन्तति
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वन्दुकान्दा सन्तति हुआ था, अर्थात् इर एक दालन के दोनों अगले कोठड़िया पढ़ती थी और बीच में एक भारी कमरा था। इस मकान में किसी तरह की सजावट ने यो मगर साफ था । दर्वाजे के अन्दर पैर रखते ही बीच वाले कमरे में भैठे हुए एक साधु पर नानक की निगाह पड़ी। वह मृगछाले पर बैठा हुआ था। उसकी उम्र अस्सी वर्ष से भी ज्यादे होगी, इसके बाल रूई की तरह सफेद हो रहे थे, लम्बे लम्चे सर के बाल सूखे और खुले रहने के सच खून फैले हुए थे, और दाढ़ी भाभी तक लटक रही थी । कमरे में गूंज की रस्सी के सहारे कोपीन थी, और कोई कपड़ा उसकै बदन पर न था, गले में जनेऊ पड़ा हुआ था और उसके दमरते हुए चेहरे से मुजुर्गी और तोचल को निशानी पाई जाती थी । जिस समय नानक की निगाह उस साधू पर पड़ी वह पद्मसिन बैठा हुआ ध्यान में था, आखें बन्द थीं और दोनों हाथ जवे पर पड़े हुए थे ! नानक उसके सामने जाकर देर तक खड़ा रहा मगर उसे कुछ खरे न हुई । नानक ने सर उठा कर चारो तरफ अच्छी तरह देखा मगर सिवाय बड़ी बड़ी दो तस्वीर के जिन पर पर्दा पड़ा हुअर था और साधू के पीछे की तरफ दीवार के साथ लगी हुई थीं और कुछ फ दिखाई न पड़ा। नानक फो ताज्जुब हुआ और वह सोचने लगा कि इस मन में किसी तरह का सामान नहीं है, फिर इस महात्मा का गुजर क्योंकर चलता होगा ? और ये दोनों तस्वीरें कैसी हैं जिनका रहना इस मकान में जरूरी समझा गया ! इसी फिक्र में वह चारो तरफ घूमने और देखने लगा। उसने हर एक दालन र कोठड़ियों की सैर की मगर फी एक तिनका भी नजर न आया, हाँ एक कोठड़ी में वह न जा सका भिसा दबा बन्द था मगर जाहिर में कोई ताला या जखीर उस दवजे में दिपाई न दिया, मालूम नहीं वह क्योंकर नन्द था । घूमती फिरता नानक बगल के दालान में आया और बरामदे से झाँक कर नीचे