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चन्द्रकान्ता सन्तति
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चन्द्रकान्ता सन्तति हो सके वजड़े तक पहुँचना उसने अपने लिये उत्तम समझा ।। नानक बरामदे से होता हुआ सदर दबले पर यिा और सीढ़ी के नीचे उतरा ही चाहती थी कि दूसरे दालान में से झपटते हुए कई श्रामियों ने श्रा कर उसे गिरफ्तार कर लिया ! उन आदमियों ने जबर्दस्ती नानक की मानें चादर से बाँध दी और कहा, “जिधर इम ले चलें चुपचाप चला चल नहीं तो तेरे लिये अच्छा न होगा । लाचार नानक को ऐसा ही करना पड़ा ।। नानक की शाख बन्द र्थी और हर तरह लाचार था तो भी वह रास्ते फी चला; पर खूब ध्यान दिये हुए था । अ६ घण्टे तक वह बुविर चला गया, पत्तों की खड़खड़ाहट और जमीन की नमी से उसने जाना कि वह छन्नले ही जङ्गल जा रहा है। इसके बाद उसे एक ड्योढ़ी लाँघने की नौबत आई और उसे मालूम हुआ कि वह किसी फाटक के अन्दर जा कर पत्थर पर या किसी पक्की जमीन पर चल रहा है। वहाँ से कई दफे बाई और दाहिनी तरफ घूमना पड़ा। बहुत देर बाद फिर एक फाटक लधिने की नौबत आई और फिर उसने अपने को कच्ची जमीन पर चलते पाया । औस मर जाने बाट फिर एक चौपट लाँध कर पी जमीन पर चलने लगा। यहाँ पर नानक को विश्वास हो गया कि रास्ते को भुलावा देने के लिये हम कादे नुमाये जा रहे है, तजुत्र नहीं कि यह वह जगह हो जहाँ पहिले आ चु है ।। । थोड़ी ही दूर चलने वाद नानक सीडी पर चढ़ाया गया, बीस पचीस सीढियां चढ़ने आई फिर नीचे उतरने की नौबत आई, और सीढ़ियाँ खतम होने के बाद उनकी श्रॉखें खोल दी गई। नानक ने अपने दो एक विचित्र रयान में पाया। उसकी पीठ की तरफ एफ ऊँची दीवार और सीढियाँ थी, सामने की तरफ एक खुशनुमा भाग या जिसके चारो तरफ ऊँची दीवार थी और उसमें रोशनी बखूबी हो । रही थी, पत्नों के फलमी पेट्रों में लगी शरी की छोटी छोटी फन्दीलों में।