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चन्द्रकान्ता सन्तति
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चन्द्रकान्ता सन्ततिं ૭૨ किशोरी का पता लगे, अस्तु जहा तक जल्द हो सके यहा से चले चलन ही मुनासिव है । जितने आदमी मर गये थे उसी तहखाने में गहा खोद कर गाड़ दिये गये, बाकी बचे हुए चार पच आदमियों को राजी दिग्विजयसिंह के सहित कैदियों की तरह साथ लिया और सभी का मुंह चादर से बाध दिया । ज्योतिपीजी ने भी ताली की झच्चा सम्हाला, रोजनामचा हाथ में लिया, श्रीर सभ के साथ तहखाने से बाहर हुए । अबको दफे तहखाने से बाहर निकलते हुए जितने दर्वाजे थे सर्मों में ज्योतिषीनी ताला लगाते गए जिसमें उसके अन्दर कोई आने न पाचे । तहखाने से बाहर निकलने पर लाली ने कु अर श्रानन्दसिंह से कहा, “मुझे अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि मेरी मेहनत बर्बाद हो गई और किशोरी से मिलने की आशा न रही । अब यदि आप आज्ञा दे तो में अपने घर जाऊँ क्योंकि किशोरी ही की तरह में भी इस किले में कैद की गई थी।" आनन्द० | तुम्हारा मकान कहा है | लाली | मथुराजी ! भैरो० । (अानन्दसिंह से) इसमें कोई शक नहीं कि लाली का किस्सा भी बहुत बड़ा योर दिलचस्प होगा, इन्हें हमारे महाराज के पास अवश्य ले चलना चाहिए । | बद्री० { जरूर ऐसा होना चाहिये, नहीं तो महाराज रज होंगे । ऐयारों का मतलब ॐ ग्रर ग्रानन्दसिंह समझ गये और इसी जगह से लाली को विदा होने में अशा उन्होंने न दी । लाचार लाली को के अर साप के साथ जाना ही पटा और वे लोग बिना किसी तरह की तकलीफ पाए राजा वीरेन्द्रभिह के लश्कर में पहुँच गये जहा लानी इज्जत के साये एफ में में रक्ती गई।