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चन्द्रकान्ता सन्तति
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चन्द्रकान्ता सन्तदि. ७Y | वीरेन्द्र० | इसका विचार कहां तक किया जायण ! ( तारासिंह की तरफ देख कर ) तुम जाग्रो और दिग्विजयसिंह को ले आश्रो, मगर मेरे सामने थकडी ग्रेडी के साथ मत लाना । | जो हुक्म' कह कर तारासिंह दिग्विजयसिंह को लाने के लिये चले गये श्रौर थोडी ही देर में उन्हें अपने साथ लेकर हाजिर हुए, तब तक इधर उधर की बातें रोती रही। दिग्विजयसिंह ने अदव के साथ राजा वीरेन्द्र सिंह को सलाम किया और हाथ जोड़ कर सामने खड़ा हो गया । वीरेन्द्र० । कहिये, अव क्या इरादा है हैं । दिग्विजय० । यही इरादा है कि वन्स भर आपके साथ रहूँ और तात्रैदा करूँ।। वीरेन्द्र० । नीयत में किसी तरहू का फर्क हैं नहीं है । दिग्विजय० । अाप ऐसे प्रतापी राजा के साथ खुई रखने चाला पूरा कम्बख्त हैं । वह पूरा बेवकूफ है जो किसी तरह पर श्रापसे जीतने को उम्मीद रखें । इसमें कोई शक नहीं कि आपके एक एक ऐयार दस दस राध्य गारत कर देने को सामर्थ रखते हैं ! मुझे इस रोहतासगढ़ किले की मजबूती पर बड़ा भरोसा था, मगर अब निश्चय हो गया कि वह मेरी भूल थी | श्राप जिस राज्य को चाहे बिना लड़े फतह कर सकते हैं। मेरी तो अक्ल नहीं काम करती, कुछ समझ ही में नहीं थाती कि क्या हुआ श्रीर श्रापके ऐया ने क्या तमाशा कर दिया । सैफ धप से जिस तहाने का हाल एक मेद के तौर पर छिपा चली श्राता था बल्कि सच तो यह है कि जहा का हक ठोक हाल अभी तक मुझे भी मालूम न श्रा, उस तहलाने पर बात का व्रत में प्रापॐ ऐयारी ने कब्जा कर लिया, यह करभिात नही तो क्या है ? बेशके ईश्वर को श्राप पर कृपा है। श्रोर यह सत्र सच्चे दिल से उपासना का प्रताप है। श्रापसे दुश्मनी रना अपन हाथ से अपना भिर काटना है । दिग्विजयसिंए की बात सुन कर राजा वीरेन्द्रसिंह मुस्कराये और